Saturday, December 31, 2011

नश्तरे जुबां हमे वो इस खूबी से  चुभा गए,
ता उम्र  उसकी दवा को हम ढूंढते रहें या रोते रहें...

चादर हमारे ख्वाब की वो फटेहाल बना गए...
धागे  उनके ख्याल के हम पिरोते रहें या सीते रहें.....!!

नवयुग में युग धर्म का यह नूतन आकार
सरस्वती को अपमानित कर, लक्ष्मी का सत्कार
भय लज्जा को त्याग निरंकुश , खुलकर अत्याचार
चाहे जिस बल कौशल से, सत्ता पर अधिकार
सिर्फ युग-धर्म दुहाई देकर , लोक विरुद्ध सुधार
हरिभक्तों को फांसी देकर हरिजन का उद्धार
किया निरिक्षण इस युग का, यही रहा मेरा शोध..
नव युग है "भ्रष्टों" का युग , हुआ यही आत्मबोध!

Tuesday, December 27, 2011

जानते है आप प्रेम कोई सम्बन्ध (relationship) नहीं, मन की अवस्था (state of mind) है. जब हम सोचते हैं ऐसा कि हम फलां से प्रेम करते हैं तो वह गलत है होता यूँ हैं कि हम प्रेमपूर्ण होते हैं! मैं तो इसे अवस्था ही मानती हूँ, क्यूंकि प्रेम से भरे हुए चित्त से प्रेम ही झरता है रौशनी की तरह सुगंध कि तरह...और जो भी पास आता है अगर वो लेने में समर्थ है तो मिल ही जाता है अगर नहीं तो वो उसकी बात!!!
प्रेम मुक्ति है! वह किसी को बाँधने का प्रश्न ही नहीं उठता.जो पास है उसे मिलता है जो दूर गया... वह गया..!!जैसे दर्पण के सामने कोई रहता है तोउसकी तस्वीर बनती है हटने पर तस्वीर मिटी.. दर्पण फिर खाली! फिर किसी की तस्वीर बनाने को तैयार.!किसी की प्रतीक्षा बनी रहेगी फिर कोइलेने को तैयार!
अगर कोई बंधन है ,कोई रोक है, तो वो आसक्ति है.. न कि प्रेम! आसक्ति रोकती हैकि रुको! नहीं तो फिर  मैं किसे  प्रेम दूंगी ? आसक्ति कहती हैकि तुम ऐसा ऐसा करना तो ही मैं प्रेम करूँ.. तो ये कारागृह में डालना हुआ..  प्रेम तो बे शर्त दान(un conditional giving) है!! प्रेम स्वतंत्र करता है एक व्यक्ति को व्यक्ति बनने देता है वस्तु  नहीं!
आसक्ति प्रेमके मार्ग में एक झूठा सिक्का (hippocracy)है .. तब आदमी सिर्फ संबंधो में जीता है.. जिस दिन पता चले कि मैं प्रेमपूर्ण हूँ ..उस दिन हम आप्तकाम (self fulfilled)होंगे .. और आनंद को उपलब्ध होंगे!!

Wednesday, December 14, 2011

मन का खेल है सब... मन कभी लहर तो कभी सागर बनता जाता है. जब विचार उठें तो लहर... जब निर्विचार  हों तो सागर!!!    शायेद यही ध्यान है...
कभी तो यूँ लगता है कि हम हज़ार छिद्र वाले बाल्टी बन गए हैं... जब कुवें में डाले जाते हैं तो  बड़ा शोर होता है... हलचल होती है!
पर जब तक पानी में हैं तभी भरे हुए से प्रतीत हो रहे है... जैसे ऊपर उठते जायेंगे खाली होना शुरू... और वही शोर!! इसी में तो हम खुश हैं...खाली  होने के शोर में...   


हाँ यही हजारों छेद.. हमारे हजारों विचार है...इसी से हमारी उर्जा भी तो कम होती जा रही है. जिस समय निर्विचार  हुए , उर्जा खोने का मार्ग बंद हो जायेगा!
वही उर्जा वापिस  हममे गिरेगी.      मन से खोया है मन से मिलेगा... मन से भटके हैं, मन से पहुचेंगे.. मन ह् रुग्ण है स्वस्थ हो जाए तो मिल जाए जो खोया है...!!...

 फिर क्या, हम ब्रह्म!.. हम परम!! हम सागर....      सत्ता हमारी...!! पर यहाँ हमारे छिद्र, हमारे रंध्र ..हमे खो रहे हैं... चुका रहे हैं...!!!         

Tuesday, December 13, 2011

एक दिन कृष्ण ने राधा के नथ (नाक की मोती) से पूछा :-

'ओ री मोती सीप की तू कौन तपस्या कीन,
सुबरन के ढिग बैठ के.. अधरन को रस लीन'!

(सीप के मोती तुने ऐसी कौन सी तपस्या की है जो सोने के साथ मिल के राधा के अधरों का रसपान कर रहा)

इसपे मोती ने कहा...

"छेड़ छिदो परहित कियों, तजि कुटुंब की लाज...
ओते दुःख मैंने सहे इन अधरन के काज!!"

Monday, December 12, 2011

एक चुटकी नमक

वो रोज पूछते हैं कि कितनी अहमियत रखते हैं मेरी जिन्दगी में.... खैर उनकी बात रहने दीजिए, आदत जो है उनकी....!! अपनी बात करते हैं...

आज डिनर में मैंने अपने पसंद कि सब्जी बनायीं.... बहुत अच्छी रंगत,, बहुत अच्छी खुशबू,,.. मज़ा आया गया देख के... खाया तो उसमे नमक नहीं था.... बाकी सबकुछ बेहतरीन!!

हाँ याद आया!!! उनकी अहमियत तो वही नमक जैसी है.. जो मिसिंग थी !!
हुंह... क्या एक चुटकी नमक की भी कोई अहमियत होती है?

Thursday, December 8, 2011

बड़ी प्रतीक्षा की होगी तुमने, शहनाई बजती होगी... द्वार पे अतिथि आये होंगे.. सहेलियों ने सजाया होगा तुम्हे!...
..फिर नहीं आया दूल्हा... न आवाज़ आयीं घोड़े की टापों की...  फिर खबर आई कि भाग गया है दूल्हा.. लापता हो गया!!  तो तेरे तो सारे सपने धुल धूसरित हो गए होंगे... अहंकार को चोट लगी होगी!!!! बहुत दर्द हुआ होगा.. है न..?. लेकिन.....??
... लेकिन....दर्द से ही कोई जागता है.. पीड़ा चुनौती बनती  है!!

इसे एक अवसर समझो एक नयी यात्रा का... एक नए  सृजन का ... !!!

कसम लो कि हो गयी बात! एक खेल से छुटकारा मिला! समय रहते तुम बच गए...

नाचो क्यूंकि वह समय लापता हो गया है.. बाद में ऐसे व्यक्ति के साथ रहने में पछतावा ही होता...!!
मत लेना सांत्वना किसी की... सांत्वना लेना और देना...सिर्फ मरहम पट्टी है.... भरोसा रखो सर्जरी में..!!!!

Wednesday, December 7, 2011

इधर ख़ामोशी, उधर ख़ामोशी, गुफ्तगू फिर भी हो रही  है,
वो सुन रहे हैं ब-चश्म-ए खंदा, बचश्मे- नम हम सुना रहे हैं!
जो मुस्कराहट से उनकी उठती है नगमाए बेखुदी कि मौजें,
वही तो बनते हैं शेर मेरे जिन्हें वो खुद गुनगुना रहे हैं!!!!!

Tuesday, December 6, 2011

वही तो है आशकी सरुरे निशाते रहती हो जिसमे हरदम
हो गम का अहसास जिसमे पैदा, वह आशकी आशकी नहीं है...!!

वही तो है बंदगी फक़त जो तेरी खुशी के  लिए अदा हो...
तलब कि जिसमे हो लाग कुछ भी वो बंदगी बंदगी नहीं है....!!!

Wednesday, November 30, 2011

बख्शी है मुसलसल एक तड़प तो इतना एहसां और करो,
हम पर भी नज़र वो जाये, जो दोनों जहाँ गरमाती है...!!
ये हार हमारी हार है वो...
जो तेरी जीत को भी शरमाती है ...!!!!

Tuesday, November 29, 2011

मेरे भक्त वत्सल गोपाल !!
क्या तुमने समझा है इस 'वात्सल्य' को? जाना है अर्थ इसका? हाँ ये ऐसा प्रेम है जैसा माँ का छोटे बच्चे से. बच्चे में कोई योग्यता नहीं है.. न वो तुम्हे कुछ कमा के दे रहा है.. न यूनिवर्सिटी का गोल्ड मेडल है उसके पास! पर माँ उस से अथाह प्रेम करती है... ये प्रेम किसी योग्यता के कारण नहीं है! बच्चा तो अपात्र , अबोध, असहाय है. उस से कुछ उत्तर भी तो नहीं मिलता! इसलिए इस प्रेम में सौदा ही नहीं सिर्फ देना है.. एक बेशर्त दान... वो तो धन्यवाद भी नहीं कहता....!!
और जब मैं कहती हूँ "हरि मोरे जीवन प्राण अधार, और आसरो नहीं तुम बिन, तीनो लोक मझार".. तो ये कह रही हूँ तुमसे कि मैं अपात्र हूँ; असहाय हूँ; कोई योग्यता भी नहीं ;प्रत्युत्तर में देने को मेरे पास तो कुछ भी नहीं है उसी बच्चे कि भांति... फिर भी.... हाँ फिर भी तुम देते हो!!!
जय श्री कृष्ण...!

Friday, November 25, 2011

तुम जानते हो......? तुम्हारा स्वर मेरे स्वर से मिल गया है. तुम्हारे बावजूद तुम समस्वर हो आते हो मेरे साथ.. कभी कभार....!! हो सकता है कभी कभार.... क्यूंकि ये मिलन तभी सम्भव है जब तुम स्वयं को भूलते हो... और उस क्षण तुम पाते हो कि तुम्हारा स्थान खाली है... भले ही क्षणिक हो ये पर तुमने सत्य देख लिया है... जैसे बांस कि खोखली बांसुरी और उसके भीतर से बह रहे संगीत का चमत्कार देख लिया है...! 
ये आकाश कि भांति एक एहसास है समस्वर होने के बाद भी लगता है वह नहीं है.. तुम भयभीत होते हो घबराते हो.. होता है ऐसा...!!! 

एक बात और.. अब मेरी उपस्थिति भी अनुपस्थित हो रही है..मैं हूँ भी नहीं भी...!!!
तुम जितने सजग हो रहे हो.. समर्थ हो रहे हो.. सफल हो रहे हो.. मैं शुन्य हो रही!!
बस एक स्वाद एक आभास हूँ.....!!

Thursday, November 10, 2011

ज़िन्दगी तेरी इबादत के तरफदार रहे
लाजिमी था कि मेरी राह दुश्वार रहे.

रो सके आप से लिपट कर न गले मिल पाए
ऐसे तलवार सा खिच जाना तो बेकार रहे.

अब मेरे शहर कि रस्मो का तकाजा है ये
दिल हो नाशाद पर मुस्कान असरदार रहे.

बस इसी जुर्म पे छीनी गयीं मेरी नींदें,
क्यूँ अंधेरों में मेरे ख्वाब चमकदार रहे.

है तेरी याद कि पुरवाई मयस्सर मुझको,
और होंगे जो  बहारों के तलबगार रहे.

Saturday, November 5, 2011

सारे जहाँ को रौशन कर सकते थे जिस शमां से हम..
झुलसा दिया गुलशन को , और खुद भी झुलस गए...!!!!
मुस्कान के इरादे अश्कों में ढल गए
आये बहार बन के खिज़ा बन के ढल गए.

हकीकत न जान पाए गम और खुशी कि हम,
थे गुल गले लगाये काँटों में छल गए.

डूबे कभी यादों में खोये कभी ख्वाबों में,

दो कलों में आज के बर्बाद पल गए.

नज़रें तो टिकीं हुईं थी चाँद और तारों पे,
खुद अपनी आँगन के ज़मीन पे फिसल गए.

दूर दूर तक खोजा करती हैं जिन्हें निगाहें
अफ़सोस बहुत पास से मेरे वो निकल गए.

मालूम न चल सका कब मौत आ गयी,
यूँ हौले हौले हाथों से बरसों नकल गए.

Wednesday, November 2, 2011



‎"क़त्ल" करके आये हो
और कहते हो तरन्नुम चाहिए
चलो.... बने रहो गरम तार बदमिजाज.. झाड झंखार
खेलते रहो -
मेरे कदमो से.. मेरी आहटों से..
मेरी कृतियों से , मेरी कनपटियों से...
समाई है मुझमे तेरी भी पत्नी.. तेरी माँ... तेरी बहन भी...
पर कभी न कभी.."सामा- चकेवा" खेलती औरतें..
रौन्देंगी तुम्हे..
उन ढेलों कि तरह...
फिर करवट लूंगी मैं...
गवाही मांगूंगी..
तेरी लाश से... तेरी कुकृति की !!!!

Sunday, October 30, 2011


जैसे हवा में अपने को खोल दिया इन फूलों ने,
आकाश और किरणों और झोकों को सौंप दिया है अपना रूप.
और उन्होंने जैसे अपने में भर कर भी इसे छुआ तक नहीं है..
ऐसा नहीं हो सकता क्या तुमसे मेरे प्रति?
नहीं हो सकता शायद ....
और इसी का रोना है..
या ऐसा भी किसी दिन होना है?
तुम्हारे वातावरण में मैंने डाल दी है कई बार अपनी आत्मा!
तुमने या तो उसे अपने अंक में ही नहीं लिया या..
इतना अधिक भींच लिया है,
जितना तुम्हे न पा सकने पर जीवन को छाती तक खींच लिया है.....
क्यूँ नहीं रह सकते हम परस्पर
फूल और आकाश की तरह?
यह नहीं हो सकता शायद, और इसी का रोना है...
या ऐसा भी किस दिन होना है?

Wednesday, October 19, 2011


सुना है गणित और तर्क शास्त्र के अध्यापक थोड़े झक्की और सनकी होते हैं... खास कर अवकाश प्राप्त हों तब..अपने परिचित १ प्राध्यापक हैं... ऐसे ही पर क्या सचमुच.....??
मैं गयी थी उनके घर देखा कि फूलों को पानी दे रहे हैं..एक टीन का फव्वारा था हाथ में..लेकिन पानी उसमे से गिर ही नहीं रहा था...वे खड़े हैं मूर्तिवत!! जब गौर से देखा तो उस फव्वारे में पेंदी भी नहीं थी... मैंने कहा कि 'आपको ख्याल नहीं रहा .. इसमें पेंदी नहीं है".. उन्होंने अजीब सा घूर और कहा.. "ख्याल तू रख देख फूलों को.. ये भी प्लास्टिक के हैं"!!
वाह रे पल्स्टिक के फूल.. न खिलना न मुरझाना... शाश्वत दीखता है.. सनातनी है...
वैसे ही जैसे मंदिर में भगवन कि मूर्तियां... न जन्मती हैं न मरती हैं...सनातन है.. और आप उसके सामने घुटने टेकते हैं...
कितना आसान है..झूट कि पूजा करना और जीवंत कि अवहेलना... आप इतने मुर्दा हो गए हैं कि मरे हुए को ही पूजते हैं,...
मूर्ती के सामने झुकने से हमारा अहंकार चोटिल नहीं होता है....क्यूंकि इसके मालिक हम हैं.. बाज़ार से लाया है.. जहाँ बिठाने का मन बिठा दिया.. मन हुआ भोग लगाने को लगा दिया.. देवता सो जाते हैं जब हमारा मन होता है.. पट बंद... भगवन के रूप में खिलौना मिला है हमे..!!
हाँ किसी व्यक्ति के सामने झुकते हैं तो हमारे अहंकार को चोट लगती है.. ध्यान रहे.. यही अहंकार श्रद्धा कि बाधा बन जाती है... यहाँ तर्क बाधा नहीं बनती जितना अहंकार!!
तर्क तो तरकीब है अहंकार को छुपाने कि... कि हम कह देते हैं कि कैसे झुकें..जहाँ दिल झुका है वहीँ सर झुकेगा, ऐसा भी कहा है हमने...
तब मुश्किल और बढ़ेगी जब ऐसा आदमी न मिले कि आप झुको... क्यूंकि आपका तर्क सदा कुछ खोज लेगा...!!

मिलिए इक जटिल आदमी से...अजीब आदमी से.. वही जो सारथि बना बैठा था अर्जुन के! उस से ज्यादा क्लिष्ट आदमी मैंने नहीं देखा... रथ पे जब बैठा तो कहा अर्जुन को,..( सार है.).' आत्मा अमर है! और जीवन का परम लक्ष्य- प्राप्ति है मुक्ति की'!!! बिलकुल महावीर जैसी बातें!!
मार्क्स जैसी बात कहते तो अर्जुन काट देता  वैसे ही मजे से जैसे स्टेलिन ने १ करोड लोग काट डाले. मार्क्स भी मिलता  अर्जुन को तो दिक्कत न थी.. वह युद्ध में उतर जाता.. महावीर मिलते तो भी वो तलवार छोड़ जंगल में चला जाता.. पर यहाँ मिले कृष्ण!!! अड़चन में डाल दिया... इन्होने कहा कि व्यवहार तो तू ऐसे कर जैसे दुनिया में कोई आत्मा नहीं है.. "काट!... अर्जुन काट"!!!.. और भली भांति जान ले कि जिसे तू काट रहा है काटा नहीं जा सकता!!
यह दो अतियों के बीच कि बात थी.. मुश्किल.. पता नहीं अर्जुन कैसे  अपने संतुलन को उपलब्ध कर पाया!!!
पर भारत अभी तक नहीं कर पाया है.. यहाँ कृष्ण कि बात तो खूब चलती है.. गीता पढ़ी जाती  है घर घर!लेकिन लोगों को गीता से सम्बन्ध नहीं है.. उन्हें छू भी नहीं सकी गीता.....यहाँ या तो वे अति वाले लोग हैं जो हिंसा को मानते हैं या तो वे हैं जो अहिंसा को!
अर्जुन जैसा व्यक्तित्व आज तक पैदा नहीं हुआ..!!!
सैनिक और सन्यासी एक साथ!! इससे ज्यादा कठिन बात दुनिया में संभव नहीं... शायद इस से ज्यादा नाज़ुक मार्ग कोई नहीं है..!! कृष्ण ने अर्जुन को यहाँ समुराई बना दिया... सैनिक और सन्यासी १ साथ! मैंने लाओत्से को जब पढ़ा आज तो बिलकुल कृष्ण जैसा ही पाया..उसने भी यही कहा,' वो युद्ध तो करता  है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता!!!
मिलिए इक जटिल आदमी से...अजीब आदमी से.. वही जो सारथि बना बैठा था अर्जुन के! उस से ज्यादा क्लिष्ट आदमी मैंने नहीं देखा... रथ पे जब बैठा तो कहा अर्जुन को,..( सार है.).' आत्मा अमर है! और जीवन का परम लक्ष्य- प्राप्ति है मुक्ति की'!!! बिलकुल महावीर जैसी बातें!!
मार्क्स जैसी बात कहते तो अर्जुन काट देता  वैसे ही मजे से जैसे स्टेलिन ने १ करोड लोग काट डाले. मार्क्स भी मिलता  अर्जुन को तो दिक्कत न थी.. वह युद्ध में उतर जाता.. महावीर मिलते तो भी वो तलवार छोड़ जंगल में चला जाता.. पर यहाँ मिले कृष्ण!!! अड़चन में डाल दिया... इन्होने कहा कि व्यवहार तो तू ऐसे कर जैसे दुनिया में कोई आत्मा नहीं है.. "काट!... अर्जुन काट"!!!.. और भली भांति जान ले कि जिसे तू काट रहा है काटा नहीं जा सकता!!
यह दो अतियों के बीच कि बात थी.. मुश्किल.. पता नहीं अर्जुन कैसे  अपने संतुलन को उपलब्ध कर पाया!!!
पर भारत अभी तक नहीं कर पाया है.. यहाँ कृष्ण कि बात तो खूब चलती है.. गीता पढ़ी जाती  है घर घर!लेकिन लोगों को गीता से सम्बन्ध नहीं है.. उन्हें छू भी नहीं सकी गीता.....यहाँ या तो वे अति वाले लोग हैं जो हिंसा को मानते हैं या तो वे हैं जो अहिंसा को!
अर्जुन जैसा व्यक्तित्व आज तक पैदा नहीं हुआ..!!!
सैनिक और सन्यासी एक साथ!! इससे ज्यादा कठिन बात दुनिया में संभव नहीं... शायद इस से ज्यादा नाज़ुक मार्ग कोई नहीं है..!! कृष्ण ने अर्जुन को यहाँ समुराई बना दिया... सैनिक और सन्यासी १ साथ! मैंने लाओत्से को जब पढ़ा आज तो बिलकुल कृष्ण जैसा ही पाया..उसने भी यही कहा,' वो युद्ध तो करता  है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता!!!

Friday, October 14, 2011

आज एक कहानी छोटी सी, एक मनोविज्ञान के प्रोफेसर हैं. उनका इकलौता बेटा भोजन नहीं कर रहा. पति पत्नी बड़े परेशान.. डांटा.. फुसलाया... सब उपाए किये पर कुछ नहीं. प्रोफेसर साहेब ने कहा, ठहर, मनोविज्ञान का उपयोग करना चाहिए. तो उन्होंने लड़के से कहा कि देख, अपना कोट पहेन, टोपी लगा, छड़ी हाथ में ले.. बाहर जा .. तू समझ कि तू हमारा मेहमान है.. अतिथि!!!
लड़का प्रसन्न .. बच्चे हमेशा अभिनय में बड़ा रस लेते हैं.. जल्द ही भेस बदला..बड़ी तेज़ी से बहार. पिता ने कहा, घंटी बजाना हम स्वागत करेंगे.. तू मेहमान..
लड़का गया.. थोड़ी देर में उसके नन्हे जूतों कि आवाज़ सीढ़ियों में सुनाई पड़ी.. घंटी बजाई,, दरवाज़ा खुला.. पिता ने स्वागत किया, आइये आप मेहमान हैं हमारे.. वक़्त पे आये.. भोजन तैयार है...लगाऊ?
लड़का टेबल पे बैठा, टोपी उतारी छड़ी रखी... पिता ने कहा जो रुखा सुखा है.. स्वीकार करें.. अतिथि!
लड़के ने कहा , "क्षमा करिए मैं अभी अभी भोजन कर के आया हूँ."

(जब अभिनय ही था... तो पूरा ही उसने किया..... आप क्या कहते हैं...?)
एक  मित्र मेरे देर रात घर लौट रहे थे.. वर्षा के दिन धीमी धीमी फुहार. रस्ते में वहां के विधायक महोदय मिले, कहा जनाब बिना छाते के...!
वो कहना नहीं चाहते थे कि छाता नहीं है .. न ही अभी खरीद सकते हैं.. सो उन्होंने कहा " ये एक अधय्त्मिक अभ्यास है ध्यान  है.. प्रयोग है..! परमात्मा वर्षा कर रहा है और तुम छाता लगाये  खड़े हो?बंद करो छाता.. ज़रा देखो बड़ा इल्हाम होगा. रिविलेशन होगा.. उद्घाटन होगा.. परमात्मा दे रहा है चखो"!!
विधायक जी को भरोसा न आया पा सोचा हर्ज क्या है...! दुसरे दिन क्रोधित लौटा...कहा.."मजाक की सीमा होती है . घर पहुच  कर मैंने ये प्रयोग किया ... ठण्ड लगने लगी .. शरीर कांपने लगा..मुझे लगा क्या मूर्खता कर रहा हूँ.. मैं पागल हूँ"?

मित्र ने कहा..              ये क्या कोई कम है पहले अभ्यास में इतनी अनुभूति...!!! ये उपलब्धि है... किये जाओ.. और भी आगे... अनुभव होगा परमात्मा का!!!!

(जो आप जगत में देख रहे हैं... वह जगत में नहीं है... वह आपका डाला हुआ है..!! पद लोलुप जो पद में देखता है.. पागल होकर लोग दौड़ते रहते हैं...!!!
कुछ पल्ले पडा......??)

Monday, July 11, 2011

AAS!!

झलक भर क्या देखा उनको
अल्फाज़ खुद ब खुद ग़ज़ल बन गए,
इस कदर बहते चले गए हम उनकी रौ में,
न खुद की खबर रही 
न फिक्र ज़माने की.
अब तो आलम ये है की,
इक झलक उनकी देख लेने की
आस बाकी है.
वो आयें न आयें-
उनके आने की आस बाकी है!

Tuesday, June 14, 2011

पहले प्रेम स्पर्श होता है, तदनंतर चिंतन भी,
प्रणय प्रथम मिटटी कठोर है, तब वायव्य गगन भी!!!
कभी कभी मन करता है बहुत दूर चली जाऊं...
जहाँ एक पक्षी एक पत्ता  तक न जानता हो मुझे,
जहाँ बस तुम्हारी यादों से भीगी हवाएं हों,
पैरों के नीचे तुम्हारी यादों का नर्म हरीयाल गलीचा....
और सर पर, आकाश के लाखों 
 सितारों कि आँखों से तुम मुझे देखते रहो......!!!

राजनीति..

राजनीति सम्प्रदाए मुक्त हो तो यह शुभ है.  पर धर्म शुन्य हो तो शुभ नहीं. धर्म जीवन का प्राण है. राजनीति जीवन कि परिधि से ज्यादा नहीं. और परिधि जैसे केंद्र को खोकर नहीं हो सकती है, वैसे ही राजनीति धर्म को खोकर राजनीति नहीं रह जाती.. "राज - अनीति"  बन जाती है. और यह धर्म के अभाव में भी संभव है. और आज राजनीति वही हो के रह गयी है,...
 हमने सुना कि एक सफल राजनीतिज्ञ, एक  सफल चोर, और एक सफल वकील एक साथ स्वर्ग पहुंचे. वैसे भी तीनो मित्र थे.. हैं... इसलिए मृत्यु में साथ आये...तो  कोई आश्चर्य  नहीं.. स्वर्ग के देवता ने पूछा, " सच सच कहना कितनी बार झूठ बोला है?"
"३ बार महाराज" ... चोर ने कहा.. भगवन ने उसे दंड के तौर पे स्वर्ग के ३ चक्कर काटने को कहे. वकील ने कहा, "३०० बार ". वकील को भी तीन सौ चक्कर लगाकर स्वर्ग में घुसने कि आज्ञा मिल गयी. 
लेकिन जब भगवन राजनीतिज्ञ कि और मुड़े तो राजनीतिज्ञ नदारद!!!
पास खड़े द्वारपाल से पूछा तो उसने कहा," महाराज वे अपनी साइकिल लेने गए हैं......". 

Thursday, June 9, 2011


कुछ बिखरे हुए से सपने थे..
कुछ टूटी हुई सी यादें थीं ....
एक छोटा सा आसमान था, उम्मीदों कि एक ज़मीन थी.
ज़िन्दगी के तस्सवुर में यूँ था तो बहुत कुछ,
फिर भी हसरतों के जहाँ में कुछ कमी थी....
चंद लम्हे मिले तो एक वक़्त बना,
कुछ सुर सजे तो गीत बना,
और आपकी यादों में में ज़िन्दगी यूँ कैद हो गयी कि....
शब् - ए- गम के इक इक पल में भी मुहब्बत का निशान बन गया....
आइये अपने ख्वाबों को यूँ सजाएँ कि,
चाहत के रंग प्यार कि खुशबू , रिश्तों कि महक से खिल उठे ज़िन्दगी हमारी !!
आज फिर ...
हर सांस में मेरी, तुम्हारा नाम जी रहा है,
हर बात ने तेरी, मेरी आँखों को नूर बख्शा है .....
झुकी झुकी सी पलकों ने इश्क को सलाम भेजा है...
धुआं धुआं सी वादियों ने हमे पयाम भेजा है,
रिश्तों के शहर से बाहर तो आइये ,
आवाज़ दी है मुहब्बत ने आज फिर!

Friday, June 3, 2011

दिल के आईने में उभरा प्रतिबिम्ब....


"दिल सोचने को बारहा मजबूर हुआ है, भीड़ का हर चेहरा क्यूँ मुझसे दूर हुआ है"
एक समय से सुबह उठने पर ये ख्याल आता है की चिर निद्रा क्यूँ नहीं आई? मेरे बाद शायद दुनिया ही सुधर जाए.

मैं तो अनामे ढंग से दुनिया के जंगल में उग आई,. तपती धुप से बचने के लिए लोगों ने मेरी छाओं के तले विश्राम किया और दो चार कुल्हाड़िया भी मार के चले गए. मैं कल रहूँ या न रहूँ, मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद रहे....अब तो तन और मन दोनों ही थक गए हैं, मन की थकन ज्यादा खतरनाक होती है.
मैं तो सबके लिए एक खाज की तरह फालतू और निरर्थक व्यक्ति नहीं वस्तु हूँ. बाहर से जो भी मेरा सम्मान हो.... लेकिन सूर्य की जिन बाल किरणों का स्पर्श पा कर कमल खिलता है और सूर्य के डूबते ही जो मुंद जाता है , वे ही उसे झुलसा डालती हैं....जब..... जब कीचड में उसकी जड़ें कट जाती हैं. यह राम चरित मानस में कहीं तुलसीदास ने लिखा है, "सो जड़ विहीन मैं".....

ज़िन्दगी आंसुओं में बह गयी,कोई किनारा न मिला....
कह सकूँ जिसे अपना, वो सहारा न मिला....

Wednesday, May 11, 2011

कहते हो नफरत है तहरीर से मेरे ....
फिर क्यूँ सजा रखे हैं तुमने ,
किताबों  की तरह..........
....................खतों को मेरे??? 

Friday, May 6, 2011



 बह रहा है पूर्वजो का रक्त मुझमे वास्तव में,
मानती थी मैं
स्वयं औरों को मनाने के लिए जाती समय पर.
मैं पृथक हूँ सभी से!

रे! उन्होंने तो लखा संकीर्ण स्वार्थी दृष्टि से
और सब हो गया उल्टा!
उनके निकट कुछ भी-
धन मान  योवन नहीं रक्षित! 

आज मैं जब हो रही कुछ कुछ व्यवस्थित
उन्ही के स्थान पर, और ह्रदय प्रेरणा देती लुभाती , कंपकंपाती
वृत्तियाँ निज देखती हूँ
तब प्रतिक्षण प्रश्न बस यह उठता 
क्या प्रीथक हूँ सभी से ?
पूर्णतः और सत्य ही! 

चल रही क्या नहीं मैं भी उन्ही के चरण चिन्हों पे?
प्रश्न उठते ही निरंतर जागता है 
गहन विश्वास!
खोखले मम - प्रश्न को
प्रतिध्वनित करती
चल रही नहीं  क्या मैं भी चरण चिन्हों पे उन्ही के!
बह रहा है रक्त आज भी पूर्वजो का मेरे, मुझमे!

Wednesday, April 13, 2011

NAARI...

हाड मांस की मैं हूँ नारी, नहीं बनी पत्थर की मूरत,
नहीं प्रदर्शन की वस्तु मैं, क्यों तकते हो मेरी सूरत?
प्रतिपल व्यूह रचा करते हो, छल छद्म के रहे हैं घेरे,
हर पल द्वन्द मचा करता है,दुश्प्रपंच के लगते फेरे.
तरुनाई में सूख गयी मैं, अरुणाई की आभा भूली,
कितने स्वप्न दिखे थे मुझको , कितने झूलों में मैं झूली!
नहीं अलगनी तेरे घर की, नहीं दीवारों की हूँ खूंटी,
जो तुमने वादे कर डाले, क्या वादे थे तेरे झूठी ?
अब तो हाल यही हैमेरा प्रश्न चिन्ह बन गया है फेरा....
दुःख कष्टों ने तन मन को, अब संग तेरे है कैसा घेरा....

Monday, February 28, 2011

खोल मन के नयन देखो
मैं तुम्हारे साथ ही हूँ!
आस्था हूँ
साधना हूँ
अर्चना
आराधना हूँ,
खोल मन के नयन देखो 
मैं तुम्हारी आत्मा हूँ.
अनल हूँ मैं 
अनिल हूँ मैं
व्योम हूँ जल स्रोत हूँ मैं,
श्वास हूँ
उच्छ्वास हूँ मैं,
प्राण बनकर तुम में निहित हूँ!
रम रही मैं तुम में अहर्निश
मैं कहाँ
तुमसे अलग हूँ?
वेदना की चोट से तुम जब व्यथित हो क्षुब्ध होते,
सांत्वना की रागिनी
मन में तुम्हारी छेदती हूँ!
अंश हो तुम सर्व हूँ मैं,
भ्रान्ति पट,
है बीच में
उस और तुम हो 
इस और मैं हूँ.
गहन अंतर में तुम्हारी
जल रहा जो धीर गति से
मैं वही हूँ दीप उसकी
ज्योति भी हूँ! खोल मन कनयन देखो
मैं तुहारे साथ ही हूँ!