Wednesday, April 13, 2011

NAARI...

हाड मांस की मैं हूँ नारी, नहीं बनी पत्थर की मूरत,
नहीं प्रदर्शन की वस्तु मैं, क्यों तकते हो मेरी सूरत?
प्रतिपल व्यूह रचा करते हो, छल छद्म के रहे हैं घेरे,
हर पल द्वन्द मचा करता है,दुश्प्रपंच के लगते फेरे.
तरुनाई में सूख गयी मैं, अरुणाई की आभा भूली,
कितने स्वप्न दिखे थे मुझको , कितने झूलों में मैं झूली!
नहीं अलगनी तेरे घर की, नहीं दीवारों की हूँ खूंटी,
जो तुमने वादे कर डाले, क्या वादे थे तेरे झूठी ?
अब तो हाल यही हैमेरा प्रश्न चिन्ह बन गया है फेरा....
दुःख कष्टों ने तन मन को, अब संग तेरे है कैसा घेरा....