Tuesday, June 14, 2011

पहले प्रेम स्पर्श होता है, तदनंतर चिंतन भी,
प्रणय प्रथम मिटटी कठोर है, तब वायव्य गगन भी!!!
कभी कभी मन करता है बहुत दूर चली जाऊं...
जहाँ एक पक्षी एक पत्ता  तक न जानता हो मुझे,
जहाँ बस तुम्हारी यादों से भीगी हवाएं हों,
पैरों के नीचे तुम्हारी यादों का नर्म हरीयाल गलीचा....
और सर पर, आकाश के लाखों 
 सितारों कि आँखों से तुम मुझे देखते रहो......!!!

राजनीति..

राजनीति सम्प्रदाए मुक्त हो तो यह शुभ है.  पर धर्म शुन्य हो तो शुभ नहीं. धर्म जीवन का प्राण है. राजनीति जीवन कि परिधि से ज्यादा नहीं. और परिधि जैसे केंद्र को खोकर नहीं हो सकती है, वैसे ही राजनीति धर्म को खोकर राजनीति नहीं रह जाती.. "राज - अनीति"  बन जाती है. और यह धर्म के अभाव में भी संभव है. और आज राजनीति वही हो के रह गयी है,...
 हमने सुना कि एक सफल राजनीतिज्ञ, एक  सफल चोर, और एक सफल वकील एक साथ स्वर्ग पहुंचे. वैसे भी तीनो मित्र थे.. हैं... इसलिए मृत्यु में साथ आये...तो  कोई आश्चर्य  नहीं.. स्वर्ग के देवता ने पूछा, " सच सच कहना कितनी बार झूठ बोला है?"
"३ बार महाराज" ... चोर ने कहा.. भगवन ने उसे दंड के तौर पे स्वर्ग के ३ चक्कर काटने को कहे. वकील ने कहा, "३०० बार ". वकील को भी तीन सौ चक्कर लगाकर स्वर्ग में घुसने कि आज्ञा मिल गयी. 
लेकिन जब भगवन राजनीतिज्ञ कि और मुड़े तो राजनीतिज्ञ नदारद!!!
पास खड़े द्वारपाल से पूछा तो उसने कहा," महाराज वे अपनी साइकिल लेने गए हैं......". 

Thursday, June 9, 2011


कुछ बिखरे हुए से सपने थे..
कुछ टूटी हुई सी यादें थीं ....
एक छोटा सा आसमान था, उम्मीदों कि एक ज़मीन थी.
ज़िन्दगी के तस्सवुर में यूँ था तो बहुत कुछ,
फिर भी हसरतों के जहाँ में कुछ कमी थी....
चंद लम्हे मिले तो एक वक़्त बना,
कुछ सुर सजे तो गीत बना,
और आपकी यादों में में ज़िन्दगी यूँ कैद हो गयी कि....
शब् - ए- गम के इक इक पल में भी मुहब्बत का निशान बन गया....
आइये अपने ख्वाबों को यूँ सजाएँ कि,
चाहत के रंग प्यार कि खुशबू , रिश्तों कि महक से खिल उठे ज़िन्दगी हमारी !!
आज फिर ...
हर सांस में मेरी, तुम्हारा नाम जी रहा है,
हर बात ने तेरी, मेरी आँखों को नूर बख्शा है .....
झुकी झुकी सी पलकों ने इश्क को सलाम भेजा है...
धुआं धुआं सी वादियों ने हमे पयाम भेजा है,
रिश्तों के शहर से बाहर तो आइये ,
आवाज़ दी है मुहब्बत ने आज फिर!

Friday, June 3, 2011

दिल के आईने में उभरा प्रतिबिम्ब....


"दिल सोचने को बारहा मजबूर हुआ है, भीड़ का हर चेहरा क्यूँ मुझसे दूर हुआ है"
एक समय से सुबह उठने पर ये ख्याल आता है की चिर निद्रा क्यूँ नहीं आई? मेरे बाद शायद दुनिया ही सुधर जाए.

मैं तो अनामे ढंग से दुनिया के जंगल में उग आई,. तपती धुप से बचने के लिए लोगों ने मेरी छाओं के तले विश्राम किया और दो चार कुल्हाड़िया भी मार के चले गए. मैं कल रहूँ या न रहूँ, मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद रहे....अब तो तन और मन दोनों ही थक गए हैं, मन की थकन ज्यादा खतरनाक होती है.
मैं तो सबके लिए एक खाज की तरह फालतू और निरर्थक व्यक्ति नहीं वस्तु हूँ. बाहर से जो भी मेरा सम्मान हो.... लेकिन सूर्य की जिन बाल किरणों का स्पर्श पा कर कमल खिलता है और सूर्य के डूबते ही जो मुंद जाता है , वे ही उसे झुलसा डालती हैं....जब..... जब कीचड में उसकी जड़ें कट जाती हैं. यह राम चरित मानस में कहीं तुलसीदास ने लिखा है, "सो जड़ विहीन मैं".....

ज़िन्दगी आंसुओं में बह गयी,कोई किनारा न मिला....
कह सकूँ जिसे अपना, वो सहारा न मिला....