Sunday, October 30, 2011


जैसे हवा में अपने को खोल दिया इन फूलों ने,
आकाश और किरणों और झोकों को सौंप दिया है अपना रूप.
और उन्होंने जैसे अपने में भर कर भी इसे छुआ तक नहीं है..
ऐसा नहीं हो सकता क्या तुमसे मेरे प्रति?
नहीं हो सकता शायद ....
और इसी का रोना है..
या ऐसा भी किसी दिन होना है?
तुम्हारे वातावरण में मैंने डाल दी है कई बार अपनी आत्मा!
तुमने या तो उसे अपने अंक में ही नहीं लिया या..
इतना अधिक भींच लिया है,
जितना तुम्हे न पा सकने पर जीवन को छाती तक खींच लिया है.....
क्यूँ नहीं रह सकते हम परस्पर
फूल और आकाश की तरह?
यह नहीं हो सकता शायद, और इसी का रोना है...
या ऐसा भी किस दिन होना है?

Wednesday, October 19, 2011


सुना है गणित और तर्क शास्त्र के अध्यापक थोड़े झक्की और सनकी होते हैं... खास कर अवकाश प्राप्त हों तब..अपने परिचित १ प्राध्यापक हैं... ऐसे ही पर क्या सचमुच.....??
मैं गयी थी उनके घर देखा कि फूलों को पानी दे रहे हैं..एक टीन का फव्वारा था हाथ में..लेकिन पानी उसमे से गिर ही नहीं रहा था...वे खड़े हैं मूर्तिवत!! जब गौर से देखा तो उस फव्वारे में पेंदी भी नहीं थी... मैंने कहा कि 'आपको ख्याल नहीं रहा .. इसमें पेंदी नहीं है".. उन्होंने अजीब सा घूर और कहा.. "ख्याल तू रख देख फूलों को.. ये भी प्लास्टिक के हैं"!!
वाह रे पल्स्टिक के फूल.. न खिलना न मुरझाना... शाश्वत दीखता है.. सनातनी है...
वैसे ही जैसे मंदिर में भगवन कि मूर्तियां... न जन्मती हैं न मरती हैं...सनातन है.. और आप उसके सामने घुटने टेकते हैं...
कितना आसान है..झूट कि पूजा करना और जीवंत कि अवहेलना... आप इतने मुर्दा हो गए हैं कि मरे हुए को ही पूजते हैं,...
मूर्ती के सामने झुकने से हमारा अहंकार चोटिल नहीं होता है....क्यूंकि इसके मालिक हम हैं.. बाज़ार से लाया है.. जहाँ बिठाने का मन बिठा दिया.. मन हुआ भोग लगाने को लगा दिया.. देवता सो जाते हैं जब हमारा मन होता है.. पट बंद... भगवन के रूप में खिलौना मिला है हमे..!!
हाँ किसी व्यक्ति के सामने झुकते हैं तो हमारे अहंकार को चोट लगती है.. ध्यान रहे.. यही अहंकार श्रद्धा कि बाधा बन जाती है... यहाँ तर्क बाधा नहीं बनती जितना अहंकार!!
तर्क तो तरकीब है अहंकार को छुपाने कि... कि हम कह देते हैं कि कैसे झुकें..जहाँ दिल झुका है वहीँ सर झुकेगा, ऐसा भी कहा है हमने...
तब मुश्किल और बढ़ेगी जब ऐसा आदमी न मिले कि आप झुको... क्यूंकि आपका तर्क सदा कुछ खोज लेगा...!!

मिलिए इक जटिल आदमी से...अजीब आदमी से.. वही जो सारथि बना बैठा था अर्जुन के! उस से ज्यादा क्लिष्ट आदमी मैंने नहीं देखा... रथ पे जब बैठा तो कहा अर्जुन को,..( सार है.).' आत्मा अमर है! और जीवन का परम लक्ष्य- प्राप्ति है मुक्ति की'!!! बिलकुल महावीर जैसी बातें!!
मार्क्स जैसी बात कहते तो अर्जुन काट देता  वैसे ही मजे से जैसे स्टेलिन ने १ करोड लोग काट डाले. मार्क्स भी मिलता  अर्जुन को तो दिक्कत न थी.. वह युद्ध में उतर जाता.. महावीर मिलते तो भी वो तलवार छोड़ जंगल में चला जाता.. पर यहाँ मिले कृष्ण!!! अड़चन में डाल दिया... इन्होने कहा कि व्यवहार तो तू ऐसे कर जैसे दुनिया में कोई आत्मा नहीं है.. "काट!... अर्जुन काट"!!!.. और भली भांति जान ले कि जिसे तू काट रहा है काटा नहीं जा सकता!!
यह दो अतियों के बीच कि बात थी.. मुश्किल.. पता नहीं अर्जुन कैसे  अपने संतुलन को उपलब्ध कर पाया!!!
पर भारत अभी तक नहीं कर पाया है.. यहाँ कृष्ण कि बात तो खूब चलती है.. गीता पढ़ी जाती  है घर घर!लेकिन लोगों को गीता से सम्बन्ध नहीं है.. उन्हें छू भी नहीं सकी गीता.....यहाँ या तो वे अति वाले लोग हैं जो हिंसा को मानते हैं या तो वे हैं जो अहिंसा को!
अर्जुन जैसा व्यक्तित्व आज तक पैदा नहीं हुआ..!!!
सैनिक और सन्यासी एक साथ!! इससे ज्यादा कठिन बात दुनिया में संभव नहीं... शायद इस से ज्यादा नाज़ुक मार्ग कोई नहीं है..!! कृष्ण ने अर्जुन को यहाँ समुराई बना दिया... सैनिक और सन्यासी १ साथ! मैंने लाओत्से को जब पढ़ा आज तो बिलकुल कृष्ण जैसा ही पाया..उसने भी यही कहा,' वो युद्ध तो करता  है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता!!!
मिलिए इक जटिल आदमी से...अजीब आदमी से.. वही जो सारथि बना बैठा था अर्जुन के! उस से ज्यादा क्लिष्ट आदमी मैंने नहीं देखा... रथ पे जब बैठा तो कहा अर्जुन को,..( सार है.).' आत्मा अमर है! और जीवन का परम लक्ष्य- प्राप्ति है मुक्ति की'!!! बिलकुल महावीर जैसी बातें!!
मार्क्स जैसी बात कहते तो अर्जुन काट देता  वैसे ही मजे से जैसे स्टेलिन ने १ करोड लोग काट डाले. मार्क्स भी मिलता  अर्जुन को तो दिक्कत न थी.. वह युद्ध में उतर जाता.. महावीर मिलते तो भी वो तलवार छोड़ जंगल में चला जाता.. पर यहाँ मिले कृष्ण!!! अड़चन में डाल दिया... इन्होने कहा कि व्यवहार तो तू ऐसे कर जैसे दुनिया में कोई आत्मा नहीं है.. "काट!... अर्जुन काट"!!!.. और भली भांति जान ले कि जिसे तू काट रहा है काटा नहीं जा सकता!!
यह दो अतियों के बीच कि बात थी.. मुश्किल.. पता नहीं अर्जुन कैसे  अपने संतुलन को उपलब्ध कर पाया!!!
पर भारत अभी तक नहीं कर पाया है.. यहाँ कृष्ण कि बात तो खूब चलती है.. गीता पढ़ी जाती  है घर घर!लेकिन लोगों को गीता से सम्बन्ध नहीं है.. उन्हें छू भी नहीं सकी गीता.....यहाँ या तो वे अति वाले लोग हैं जो हिंसा को मानते हैं या तो वे हैं जो अहिंसा को!
अर्जुन जैसा व्यक्तित्व आज तक पैदा नहीं हुआ..!!!
सैनिक और सन्यासी एक साथ!! इससे ज्यादा कठिन बात दुनिया में संभव नहीं... शायद इस से ज्यादा नाज़ुक मार्ग कोई नहीं है..!! कृष्ण ने अर्जुन को यहाँ समुराई बना दिया... सैनिक और सन्यासी १ साथ! मैंने लाओत्से को जब पढ़ा आज तो बिलकुल कृष्ण जैसा ही पाया..उसने भी यही कहा,' वो युद्ध तो करता  है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता!!!

Friday, October 14, 2011

आज एक कहानी छोटी सी, एक मनोविज्ञान के प्रोफेसर हैं. उनका इकलौता बेटा भोजन नहीं कर रहा. पति पत्नी बड़े परेशान.. डांटा.. फुसलाया... सब उपाए किये पर कुछ नहीं. प्रोफेसर साहेब ने कहा, ठहर, मनोविज्ञान का उपयोग करना चाहिए. तो उन्होंने लड़के से कहा कि देख, अपना कोट पहेन, टोपी लगा, छड़ी हाथ में ले.. बाहर जा .. तू समझ कि तू हमारा मेहमान है.. अतिथि!!!
लड़का प्रसन्न .. बच्चे हमेशा अभिनय में बड़ा रस लेते हैं.. जल्द ही भेस बदला..बड़ी तेज़ी से बहार. पिता ने कहा, घंटी बजाना हम स्वागत करेंगे.. तू मेहमान..
लड़का गया.. थोड़ी देर में उसके नन्हे जूतों कि आवाज़ सीढ़ियों में सुनाई पड़ी.. घंटी बजाई,, दरवाज़ा खुला.. पिता ने स्वागत किया, आइये आप मेहमान हैं हमारे.. वक़्त पे आये.. भोजन तैयार है...लगाऊ?
लड़का टेबल पे बैठा, टोपी उतारी छड़ी रखी... पिता ने कहा जो रुखा सुखा है.. स्वीकार करें.. अतिथि!
लड़के ने कहा , "क्षमा करिए मैं अभी अभी भोजन कर के आया हूँ."

(जब अभिनय ही था... तो पूरा ही उसने किया..... आप क्या कहते हैं...?)
एक  मित्र मेरे देर रात घर लौट रहे थे.. वर्षा के दिन धीमी धीमी फुहार. रस्ते में वहां के विधायक महोदय मिले, कहा जनाब बिना छाते के...!
वो कहना नहीं चाहते थे कि छाता नहीं है .. न ही अभी खरीद सकते हैं.. सो उन्होंने कहा " ये एक अधय्त्मिक अभ्यास है ध्यान  है.. प्रयोग है..! परमात्मा वर्षा कर रहा है और तुम छाता लगाये  खड़े हो?बंद करो छाता.. ज़रा देखो बड़ा इल्हाम होगा. रिविलेशन होगा.. उद्घाटन होगा.. परमात्मा दे रहा है चखो"!!
विधायक जी को भरोसा न आया पा सोचा हर्ज क्या है...! दुसरे दिन क्रोधित लौटा...कहा.."मजाक की सीमा होती है . घर पहुच  कर मैंने ये प्रयोग किया ... ठण्ड लगने लगी .. शरीर कांपने लगा..मुझे लगा क्या मूर्खता कर रहा हूँ.. मैं पागल हूँ"?

मित्र ने कहा..              ये क्या कोई कम है पहले अभ्यास में इतनी अनुभूति...!!! ये उपलब्धि है... किये जाओ.. और भी आगे... अनुभव होगा परमात्मा का!!!!

(जो आप जगत में देख रहे हैं... वह जगत में नहीं है... वह आपका डाला हुआ है..!! पद लोलुप जो पद में देखता है.. पागल होकर लोग दौड़ते रहते हैं...!!!
कुछ पल्ले पडा......??)