Thursday, May 31, 2012

हटवाओ जल्दी मेज से ये प्याले ये शराब...
आते ही होंगे इक बुज़ुर्ग कुछ पुराने ख़याल के...!

गालियां

एक सम्मानित नागरिक अधिकारों का जायज पात्र होता है. स्त्री भी उसी श्रेणी में है.फिर भी मन में कुछ तीखे तीखे सवाल रह जाते हैं कि इतनी योग्यता क्षमता गुण और कार्यकुशलता के बावजूद सिर्फ दो शब्दों में उसकी औकात बता दी जाती है...क्या आप जानते हैं ऐसा कौन से अमोघ अस्त्र है और शब्द सम्पदा में तेज नेजे कैसे उभरते हैं?
जाने किस सज्जन ने संबोधन की सहज भाषा गढ़ी है जो नाराज़गी अपमान और निंदा को व्यक्त करती है... आसान भाषा में हम इसे "गाली" कहेंगे...!
कितना कौशल है कि मर्द एक दूसरे को गालियाँ देते हैं और माँ-बहनों का शरीर क्षत विक्षत होता है...! यहाँ पर भी पुरुष अपनी कुंठा निकालने के लिए सिर्फ स्त्री देह का सहारा लेता है...! मर्दानी आदतें हैं भाई....!
वही मा -बहने एक और पूज्य कही जाती हैं तो दूसरे वार्तालाप में चीथड़े होते हैं उनके..!
क्या चाल है मर्दों के भी.. भई मर्द ही लड़ेंगे और अपमानित करने के लिए एक अभद्र और अश्लील गाली देंगे दूजे को.. जिनमे धूल चाटती एक स्त्री दिखेगी..!
एक तरह का शाब्दिक बलात्कार....!
जिस तरह दलितों के जातिगत शब्दों पर धाराएँ लगायीं गयीं है... गालियों के लिए क्यूँ नहीं?
क्या ये स्त्रियों की गुलामी का रूप नहीं...?क्या गालियों के कोई दंड विधान है...?

"... भाई साहब अबकी बार सोच के गालियों के लिए मुह खोलना....! नयी गालियों के इजाद करो वरना हम उपलब्ध कराते हैं "एक नया शब्दकोष"!!

"आपके शहर की तालीम अब कहाँ तक पहुंचीं...
गालियाँ भी बनायीं तो औरतों के जिस्म तक ही पहुंचीं..."
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा,
आज फिर सीने में उलझी हुई साँसे होंगी !
आज फिर जागते गुजरेगी रात ख्वाबों में तेरे,
आज फिर चाँद की पेशानी से उठेगा धुआं...!!
कहने को हम गुप्त, मगर जग जाहिर हैं...
घावों को शब्दों से भरने में माहिर हैं...!
हमारा इशारा भी कुछ ऐसा रुख रखता है..
ये भी हो सकता हैं, वो भी हो सकता है..!
खासियत अपनी शब्दों की हेराफेरी....
जी हाँ चित्त भी मेरी ... हाँ पट भी मेरी...!
साहेब जी,
आप तो बिना शहीद हुए मज़े ले हैं..!
अब दुम दबाकर वही करिये जो दूसरे 
मुर्गाने-चमन कर रहे हैं...
यानी कि.......
शाखो में बस इधर -उधर.
ख़ामोशी से पर समेटे बैठे रहिये...
कमर कस के तलवार भांजने के दिन 
अब लद गए आपके...!

Tuesday, May 22, 2012

कोई तो रात में छिपा ही होगा इस फुलवारी में...
और अपनी अत्याधिक सुगन्धित
और रगीन डिबियों में से
कुछ उडेला होगा फूलों पर...!
फिर पुलकित हुईं होंगी इन पंखुड़ियों की आत्माएं...!!
.. या फिर एक सुन्दर स्वप्न...
फिसलकर गिरा होगा निद्रा की गोद से....!

भय लगता है अब...कि,
गिरे गुए पुष्पों को भी चुनकर
आराध्य के चरणों में अर्पण करते हुए...
कि, जीवन तो दिखाई भी नहीं देता इन फूलों में....!

चटकना, खिलना, सुवासित होना, गिरना.....
और जीवन का अदृश्य होना...
यहीं नियम हैं प्रकृति के...!

हमारे नियम तो बदले भी जा सकते हैं
पर बदलेंगे नहीं प्रकृत्ति के नियम...
वे अजेय हैं....!!!

Monday, May 21, 2012


एक प्रतीक्षा ..
पांच द्वार..!
 'एक द्वार प्रकाश बिखेरने को..
एक नाद तरंग उठाने को...
एक स्पर्श-हर्ष  बरसाने को
एक गंध..
और एक स्वाद हेतु....
स्वागत में...'

पंच-द्वार खुले हैं पूरे...
श्रेष्ट पर्यक में झुलाने को...!
अंतरंग में इस भांति रंग रचाने को..
कि वह आएगा...!

प्रतीक्षा ..मेरी, तुम्हारी  या द्वार की ...?
कण-कण खोले खड़ी हूँ...
कि वह आएगा...
वह आएगा...!
क्या वह आएगा..

Friday, May 18, 2012


हाँ.. हाँ... कुफ्ले-अबजद की तरह ही बंद हैं हम...
... ज़रा नाम लो अपना, ये  दिल खुल जायेगा.....!


(कुफ्ले अबजद = वो ताला जो अक्षरों के मेल से खुलता है)

Wednesday, May 16, 2012

.... किन्तु जब अन्यायी सजा से बच जाता है,
तो वह घूम घूम कर तुम्हारी सत्ता को 
स्थापित करता है.....!
... और निर्दोष तुम्हारे नाम पर कभी...
तुम्हे ही पुकारते फांसी चढ जाता है...
.....तुम जो आते नहीं...!
हाँ, मरने वाले से तुम्हे क्या मिलेगा,
....जिंदा रहनेवाला, तुम्हारा नाम जो चलाता है...!!!!

Tuesday, May 8, 2012

".................मज़ा आया खूब ये सुनकर, कि
तेरी ही महफ़िल में कोई मेरा नाम लेता रहा...."
अरे! जाओ भी, क्या -क्या सुनाएँ तुम्हें...
ज़बां थक जाती है और, बातें रह जाती हैं....!
कल तो रो ही पड़े थे मरीज़-ए-गम का हाल सुनकर
.............तरस खाकर दुआ दे रहे हो आज शायद.....!

Thursday, May 3, 2012

हमे नहीं पता, ना एहसास खुद के हालात का
बस सुना किसी से है कि बहुत परेशान हैं हम.....!