Monday, July 30, 2012


चलिए  आज मिलते हैं दस  रहस्यमयी  औरतों  से:-

१.कुंती: अविवाहित मा बनना, और नियोग से बच्चों को जन्म देना, पांच पुत्रों से द्रौपदी का विवाह करना|

२. द्रौपदी: पांच पतियों को कुशलता से निभाना उन्हें रहस्यमयी बनाता है|

३ क्लियोपेट्रा: एक सुंदरतम स्त्री, सौंदर्य बरकरार रखने के लिए गद्धी के दूध से स्नान करती थी. उनके चरित्र का रहस्य, प्रेम किसी और से, सपने किसी से , शादी किसी से|

४. मोनालिसा: कोई वाकई थी या चित्रकार की कल्पना. आज भी रहस्य है..|

५. अमृता प्रीतम: ज्ञानपीठ और पद्म विभूषण से सम्मानित सुप्रसिद्ध लेखिका, जिनके  लिए प्रेम और स्वतंत्रता के बड़े मायने रहे. चित्रकार इमरोज़ के साथ बिना विवाह लंबा सम्बन्ध जिया

६.प्रिंसेस डायना: शाही रसोइये से लेकर घुडसवार तक से संबधो में लिप्त होना ..एक अरब रईस के बेटे से इश्क होना और दुर्घटना में मौत|

७. सुरैया: उनके गाने जब रेडियो में बजते थे तो तांगेवाला कहता था"बाबूजी पहले सुरैया को सुन लूं फिर चलूँगा.."
पाकिस्तान के पूर्वा प्रधानमंत्री स्व. भुट्टो उनसे शादी करना चाहते थे| एक जनाब तो बरात ले कर पहुँच गए थे तो पुलिस ने हवालात में डाल दिया वहाँ दुल्हे मिया ज़हर खा लिया ...
देवानंद के प्रेम में ऐसी पड़ीं कि सारा जीवन उनकी याद में बिता दिया  अपनी नानी बादशाह बेगम के कारण शादी ना कर सकीं

८. हेमा मालिनी: विवाहित धर्मेन्द्र से शादी, अपने बूते पे बच्चे पालना और आज भी नयी हिरोइनों को अपनी खूबसूरती से मात देना.

९. रेखा: व्यक्तिगत जीवन को जाहिर कभी ना किया... जल्दी इंटरव्यू नहीं देतीं.. गोलमोल जवाब देतीं हैं..!

१० ............: अपने बारे में चर्चा फिर कभी करुँगी....!!

Sunday, July 29, 2012


तुम्हारे साथ के वो सुन्दर पल,
महकती वादियाँ ,
गाती घड़ियाँ
खुशनुमा लम्हे..
खूबसूरत यादें
तुम्हारा चेहरा तुम्हारी खुशबू...!
"तुम्हारा होना..
मेरा होना...."
और इसी से बीतता हर पल..!

"तुम्हे पता तो होगा ही कि,
मैं वक्त के साथ नहीं,
.... वक्त मेरे साथ चल रहा  है...."

"या के वक्त मुझे छल रहा है...."
"...............????"

Tuesday, July 24, 2012

आठ साल पहले राव दम्पति अपनी बेटी के शोध कार्य के लिए विदेश गए... अपने पिता श्री वी. एस . राव को एक ओल्ड एज होम में दाखिल करा के... २००९ में बिटिया वेल सेटलड थी.... श्री राव अभी भी बंगलोर एक वृद्धाश्रम में हैं... न तो उनके बेटे यहाँ आये न ये गए उनके पास... हाँ अच्छी रकम आ जाती है संस्था के नाम इनके इलाज के लिए... डेढ़ साल से ये परालाइज्ड हैं... !
जीने की इच्छा खो चुके श्री राव, अपनी लंबी चौड़ी मौत खुली आँखों से देखना चाहते हैं.... न डर... न भय .. और न ही कुछ पाने खोने की तमन्ना...! उनसे बातचीत के आधार पर उनकी इच्छा से अवगत हुए हम.. उन्हें जाना.. पहचाना.. जीवन का एक पहलु भी देखा!
ये पंक्तियाँ....
(अनुवाद- कन्नड़ से हिंदी..)

उसने अपने बाएं हाथ से दायाँ हाथ
पूरा छू लिया...छूता रहा..परन्तु कोई स्पंदन नहीं....
कल ही डॉक्टर ने कहा था कि उसका दायाँ भाग मर चुका है..
मन ही मन हंसा था वह,'क्या ऐसा भी होता है..?
-व्यक्ति मर जाए आधा.. और आधा जीवित रहे..?
-आधा भाग अपना हो और आधा पराया...?
आधा सबकुछ सह सके.. और आधा जड़ हो जाए..?'

"जैसे खूटी पर टंगा हो वह, और नीचे देखता हो...
-चलता हुआ संसार.... कुछ जीवित, कुछ मृत...!
और पल पल वह अपनी मृत्यु देखता रहे..
आधा मृत.. और आधा प्रक्रिया में मरने की ....!"
.......
...
'उसकी इच्छा है ... बाहर विराट नीलिमा के अमाप विस्तार
को बाहों में भरना....
महसूसना.....
बाहों न भर सके तो....
आँखों में उतारना...
पूरा का पूरा....
अचूक!!!!'

यहां से कोई रास्ता आगे नहीं जाता..
जा भी नहीं सकता.. क्यूंकि,
आगे भविष्य के कब्रिस्तान की शुरू हो चुकी सीमा है...!
-अतीतों की तरह बेजान होते जाते भविष्य की...!

और (तुमसे) अपेक्षाएं... जैसे,
साबुन के बुलबुले...
-आकर्षक, रंगीन पर क्षणजीवी...!

हाँ अंधे मोड भी देखो , दोनों तरफ
-और  घूरता हुआ भौचक्का वर्तमान..!

पर जब तक पांव है, उनके साथ जुडी है चलते रहने की
एक परिहार्य 'विवशता...'
आगे पीछे बंद रास्ते,
..अंधे मोड..
वक्र..
अबूझ..
असमाप्त...!
बस, यहाँ से कोई रस्ता आगे नहीं जाता...!

Saturday, July 21, 2012

'मन मिटटी होता जा रहा है..
रोज-रोज एक ही सन्देश|
जैसे शब्दों को किसी ढलान से 
धकियाते जा रहे तुम...,
..... और मैं......
रोकती-टोकती
दौड़ती-हांफती
उन्ही-उन्ही इबारतों में.....
लौट-लौटकर जाना चाहती हूँ....
उन्ही-उन्ही दृश्यों में दिखना चाहती हूँ...
जहाँ से तुम भागने का रस्ता ढूंढते रहते हो...!'

Thursday, July 19, 2012


साटिन के गाउन की  डोरियों को कमर से मुक्त कर
 'बीबीजी' इंटरनेट पर बैठती हैं|
चाय लिए 'सरसतिया ' खड़ी है,
खड़ी- खड़ी ताक रही इशारे का इंतज़ार करती है..
सोच रही कि अच्छा हुआ इंटरनेट ने साँसों की फिजूलखर्ची बचा ली..
पहले तो 'बीबीजी' फोन ही पे होती थीं..
अब पूरमपूर थ्रिल..!!!
बटन दबाव बे-आवाज़  बतियाओ.
'बीबीजी को देख याद आया ' नया मुल्ला खूब प्याज खाता है'
ये उसने नहीं कहा, सदियों से ये उक्ति चली आ रही है..|

पर इधर ई-मेल , फेसबुक का गट्ठर पहली बार जाना...
'बीबीजी' ने तो ये भी बताया था कि
'नेट 'के यातायात में भी ऊब दाखिल हो चुकी है,
जी हाँ..... ऊब....!
या एक संक्रामक 'रोग'...?
छी:.. सरसतिया ने खुद को कोसा मन में..
'दो कप पानी क्या उबाल लिए कि लगी सर चढ़ने,..
 देख सुन के टांग अड़ा, गवांर कहीं की...!'

अप टू डेट तो बीबीजी हैं री...
बिजी जो रहती हैं.. बड़े-बड़े काम, लिखना -पढ़ना...
दफ्तर जाना, इन्टरनेट...
वो कोई सरसतिया थोड़ेई हैं, जो दिनरात अपनी
मरगिल्ली बेटियों के 'भकोसने' का इंतजाम करती रहें.
या अपने पियक्कड रिक्श्वान मरद के हाथो पिटती रहे...
'राम..राम...'

.... बीबीजी ने न तो शादी की
न बच्चे, न गू-मूत...न पियक्कड मरद...
न गुलामी , न सलामी... न मारपीट.....
छुट्टम - छुट्टा आज़ाद...!
ठकुरानी ... महारानी .. बीबीजी रानी.....!!

'फिर कईसन चेहरा रे बीबीजी का....
कभी हैवानियत.... कभी नाखुशी...कभी असंतुष्टि.... कभी रोमांस..
....... और कभी ऊब'..
'.... जी.... हाँ.... ऊब......'!
सरसतिया ने एक बार फिर सोचा और चाय रख चली गयी......!

Tuesday, July 17, 2012


जाने क्यूँ रिश्तों में मुझे दो टूक सफाई पसंद है...
या इधर या उधर....
बीच में कुछ नही |
बीच होने की 'यातना' कुछ नहीं|

वक्त और मेरे बीच साल भर की  अवधी में घट चुका
इक मीलों लंबा इतिहास है..
पर इन सब से परे
एक छोटे से क्षण में, वक्त ने जैसे
सब देख लिया /साफ़ देख लिया..
और दिखा दिया....
सबसे अलग, अकेला , अपना स्वतंत्र मनोनीत क्षण|
इतने सघन अँधेरे में भी  क्षण-बिंदु से आगे को
खिचती जाती  दिशा -रेख भी स्पष्ट दिखाया वक्त ने..

अब लगा कि जा सकुंगी
मन और तन की हिंसाओं से परे-
-बेबाक.. बेलाग....और अकेली!!!!!

Monday, July 16, 2012


नए दर्दों के साथ उघड आते हैं पुराने दर्द....
हुंह....! दर्द को दावा भी तो नहीं कर सकते कि
तू खूब जाना  पहचाना लगता है...!
लगता है, जैसे हरेक दर्द को इक नया नाम चाहिए...
... और रोज ही तो अंतड़ियों का एक हिस्सा उधड़ता जाता है....
... दर्द से....!

सुनो, एक बात बताओगे.....?
क्या हँसते रहने से...
झेलने से... सहने से..
मन के कोने में दफना देने से..
या ऐसे ही तमाम पट्टे लगाए रहने से..
क्या दर्द पतले पड़ जाते हैं??

Friday, July 13, 2012


अरे सुनो, कल ही तुमने एक बीती बात का गुब्बारा
हाथ में पकडाया था....
जो किसी खोखल में भरी हवा के बल पर उड़ता है,
हाथ तो जैसे खाली थे वैसे ही हैं.
हाँ! पर मन मैला हो गया है...
धरती से आँखों का फासला जो बढ़ गया है....
'दर्द का चीथड़ा मेरे गुमान की  पट्टी  पर फडफडा रहा है आज भी...'
बताओ ना, किस कांटे को कहूँ कि ,
-तू ज्यादा चुभ रहा है......!

Tuesday, July 10, 2012


पार्क से निकलते वक्त, अचानक उस कुत्ते की  दुम पांव के नीचे आ गयी,
मैं चीखी, "ओह आई ऍम सॉरी..."
कुत्ते ने कहा,"इट्स ओ के..., डोन्ट फील सॉरी.
मैं ही गलत जगह बैठा था."
मैंने कहा,"अरे, तुमने काटा नहीं? शराफत भी दिखाई,
क्या तुम थोड़े कम कुत्ते हो?"
कुत्ता मुस्काया, बोला.."ये तो बड़ा एब्सर्ड स्टेटमेंट है मोहतरमा...
कुत्ते कमज़ोर होते हैं, ताकतवर होते है, बीमार होते हैं, स्वस्थ होते हैं,
सुंदर और असुंदर होते हैं....
पर कुत्तेपन में फर्क नहीं होता..
-फर्क तो आदमियों में आदमियत की होती है..
हमारे पास च्वाइस नहीं , सिर्फ  डिसीजन है...!
हमारा भूत वर्तमान भविष्य सब एक जैसा ही है...
'व्हिच इस पॉसिबल, इस एक्चुअल',
इंसानों कि एक्चुअलिटी  पोसिबिलिटी नहीं होती...
आप बदल सकते हैं कल भी आज भी...
आप में कम इंसानियत भी होती है ज़्यादा भी....
'और जानती हैं फैक्ट क्या है,
आपने अपनी यात्रा पशु से शुरू की थी,
और उस यात्रा का एक्सपीरिएंस आपके साथ होता है...
हम कल भी पशु थे आज भी है कल भी रहेंगे...!
एंड यू मस्ट नो कि, पशु डाइमेंशनल रस्ते में होते हैं,
हमारे कुत्तेपन की  कोई च्वाइस नहीं , जितने कि
इंसानों में, इंसान होना और बने रहना'
.... गुड बाई...."....
और धूल झाडकर वो कुत्ता चला गया....
'हाँ! मेरी ही आँखों से....'!

Monday, July 9, 2012


वह लौटाने आया था राशन, उस दंगे के बाद
जो दिए गए थे बस्ती के कुछ घरों में,जिनके
या तो घर जले थे, या कोई अपना  मरा था...

उसने कलेक्टर से यही कहा कि
-'उन फसादों में सबके बच्चे मरे, मेरे क्यूँ नहीं...
क्यूँ जिंदा रह गए सब.. के सब ?'
ये बात कह्ते हुए शब्द लड़खड़ा गए उसके..
ज़ुबान धोखा दे रहीथी ,
उस सिसकी को उसने भरसक
अपने होठो के कोटर में भीचनी चाही
.. पर फूट पड़ा..
हाथ सर से बंधे रहे और गाल गीले होते गए...
सुबकियां गले में ठेली जा रहीं थीं
धौंकनी सी छाती और हिलता शरीर.
शर्म छिपा सकने का भी होश नहीं था.

"'सात लोगों के परिवार में गुज़ारा कैसे होगा?
मुझे खैरात नहीं, कोई काम दे दो साहेब."
लडखडाती आवाज़ में इतना ही बस निकला..

कलेक्टर सोच में पड़ गया
सामने फोड़े से फूटते इस अजीब आदमी को देखकर.
"इतना लहीम-शहीम, इतना खुद्दार,
और ऐसे फफक फफक कर......
....... आखिर क्यूँ...".....?

"गुस्ताखी माफ हो साहेब"....
यही कहते हुए वह उठा, उबाल ठंडाने  पर...
और निकल गया कमरे के बाहर, राशन का बण्डल वहीँ छोड़.
'पता नहीं आज आग कैसे जलेगी ,
 बुरादा भी खत्म हो गया अंगीठी का..!'


(ये कोई काल्पनिक कविता नहीं,  सत्य घटना का एक अंश है.. बस ज्यों का त्यों रखा गया सामने आपके)

Sunday, July 8, 2012


- बच्चों आज तुम्हारे लिए, रश्मि दीदी की तरफ से.... :)

' सिन सिनाती बुबला बू....
मेले से लाया बिट्टू...
ढम -ढम ढोलक बाजा बीन,
गाँधी जी के बंदर तीन.
सुनकर भालू की खड़ताल,
नीलू-पीलू हैं बेहाल.
उनका घर है टिम्बकटू
सिन् सिनाती बुबला बू.....'

आओ बच्चों, रश्मि दीदी फिर आ गयीं आपके लिए कुछ लेकर.....

"सोन चिरैया चूं-चूं-चूं...
मोती पिल्ला कुं-कुं-कुं...
सोनू तोता रटता है,
बन्दर खों-खों करता है .
बिल्ली बोलो म्याऊ-म्यायुं ,
ढूध पिलाओ तो मैं आऊ,
मेढक बोला टर्र-टर्र-टर्र,
नहीं किसी से मुझको डर.....!"

तो बच्चों, नहीं किसी से-
.
.
"मुझको डर............"

'ओ.के., शाबाश!'
बच्चे मन के सच्चे'.......... कभी पढ़ना बच्चों के चेहरे, उनकी मासूमियत... कितनी तरलता होती है उनके चेहरे में एक लिक्विडिटी...! हवा के झोंके के समान बदलता चेहरा...मासूमों के चेहरे कठोर नहीं होते... कठोर चेहरे मुर्दों के होते हैं.. जिंदा के नहीं.. या फिर पत्थर दिलों के... जिनके लिए सब फिक्स्ड हो गया है...तो चेहरा पथरीला हो गया...! मैं नहीं कहती कि चेहरे मत बदलो.. बदलो, खूब बदलो.. बच्चों के सामान लिक्विडिटी आने दो...पर, चेहरे को पत्थर ना बनने दो... असली चेहरे को रखो सामने...असली चेहरे में तरलता होगी , जो चांदनी रात में कुछ और होगा.. अँधेरी रात में कुछ और.. सुख में कुछ और दुःख में कुछ और...यही संवेदनशीलता है...! इर्ष्य राग- द्वेष रखनेवाले व्यक्ति संवेदनशील नहीं होते...!
"ह्म्म्म..... जिंदगी में एक परिवर्तन ही ऐसी चीज़ है जो परिवर्तित नहीं होती...!"

बच्चों आज एक क्लासिकल गाना सुनो.. शायेद हमने.. आपने.. हमारे माँ.. बाप ने भी इसे सुना हो..... बिलकुल बिहारी छाप लिए.... :)

"अटकन बटकन, दही -चटाकन
बार फूले बरेला फूले..
सावन मास करेला फूले.
जा बेटी गंगा
गंगा से कसैली ला
कच्चे कच्चे नेउर के, दे पक्के पक्के तू खा...."

(नेउर= नेवला)
:)

Thursday, July 5, 2012


(अब लौटने का कोई रास्ता ना रहा..
........जीवन... /भूलभुलैया../ चक्रव्यूह..........!)

ना कनीज़ रास्ता दिखा रही थी कोई
ना कोई ख्वाजासरा बिछा रहा था कालीन
ना दरवाज़े खुल रहे थे अपने आप
ना मुस्कुराते बंदे खड़े थे सर झुकाए....

काठ के घोड़े पर चढ के उड़ तो रहा था वह
बादलों पर...
पर.. नीचे उतरने की कला भूल गया .
और 'खुल जा सिम सिम 'का मंत्र भी भूल गया वह
......अचानक!!!!!!

"चक्रव्यूह की बात सुनते सुनते
तुम बीच में क्यूँ सो गयीं थीं सुभद्रा?"

Tuesday, July 3, 2012

मैं लौट रही थी...
अपनी सधी हुई लडखडाहटों  के  साथ...
चुप- चाप, निशब्द ..!
खंदकों को पार करती हुई 
ऊँचे नीचे पत्थरों के ढोकों पे पांव रखती हुई ..
न हर्ष न विषाद न शोक न क्रोध...!
कुछ वैसे ही जैसे..
शिव लौट रहे थे सती का शव काँधे पे डाले.
मेरे कंधे पर भी इक लाश थी...
हाँ ....ये मेरी ही लाश थी!!!