Wednesday, August 29, 2012


मन में गड्ड-मड्ड है.....
याचना का दंश..... अपनी लाचारी .... समय का फेरबदल....!
चाहा था कभी कि, अपनी इच्छा के ताप से
दलदल के इस महाकुंड की चौड़ाई को पार करूँ....|
इस महायज्ञ में मेरी इक छोटी सी समिधा भी याचना से नहीं,
संकल्प और सदिच्छा से सिंकी हुई हो....
'मुझे उत्सर्ग का बल दो.....'
और हाथ में कुछ ना दो....!

तुम्हारे ना होने की पीड़ा भी मैं ऐसे ही सन्दर्भ से जानूंगी....!
"निस्सहायता की पीड़ा... फिर समाधान की चमक..."
फिर सुबह के इंतज़ार का आवेश.....!
हर मनोवेग उस्तरे की  तरह नींद की चमड़ी को चीरता हुआ सा......
फिर भी मन में शिथिलता नहीं,
उठने के साथ ही ढून्ढ रही खुद को......
जहाँ- तहां ...........भीतर -बाहर....
मन फिर से घायल हो गया......!!

Thursday, August 23, 2012


सुनो जी एक मज़ेदार कहानी.... एक आदमी को बिमारी हो गयी थी कब्जियत की..... महा बीमारी.....! २ महीने बीत गए और मल-विसर्जन नहीं हुआ था... डॉक्टर हैरान परेशान .. सारी दवाइयां  फेल!! इतने में  खबर आई कि जर्मनी में एक दवा बनी है जो इन्हें ठीक कर दे... दवाई मंगाई गयी... चिकित्सकों ने सोचा 'ये कोई साधारण आदमी तो हैं नहीं  ... इस ने दो महीने से साधा  हुआ है... संयमी.. महायोगी!!! तो इसे पूरी बोतल पिला दो....'
तीसरे दिन डॉक्टर उसके घर गए देखने को कि असर हुआ या नहीं..... पता चला आदमी मर गया और मल -विसर्जन जारी है...!लोग अर्थी सजाये बैठे हैं और वो संडास में बैठा है.....!

हाँ तो.... हमारे नेता लोग भी  कुछ ऐसे ही हैं..... ७० ..८०.. साल क होगये हैं अभी भी जमे हैं दिल्ली में... दम खम तो कब का मर चुका है.. पर मल -विसर्जन रुक नहीं रहा.....! दौड जारी  है.... कुर्सी नहीं छूट रही...एक एक कुर्सी पर तीन तीन लोग जमे हैं.... धक्का मुक्की  खूब है.....!
जय राम जी की......!!

Thursday, August 16, 2012


                      कभी-कभी
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कभी-कभी लगता है मेरी इस आवाज़ को सोख रहा मेरा चेहरा,
मैं एकदम से देख लूं -इसी क्षण.......!
फिर एकाएक सारे रहस्यों की पोटली भी खोल दूं ....
और अपने ऊपर नीचे, आगे-पीछे, तानी गयी अपनी
अगाध मंशा के दाने भी बिखेर दूं...!

फिर कभी-कभी लगता है......
सब मेरी समझ के बाहर हो गया है...
और इसे सोख लेने के लिए
मुझे जन्म के साथ मिली मेरी ही पुरानी खाल पर
बिछे सारे रोमकूप बेकार हो जाते हैं...!
..... और...
और मैं फिर से रुआंसी हो जाती हूँ.............!!

Wednesday, August 15, 2012


देख तमाशा इस दुनिया का....!
सारे दुःख दर्द जो दिखाई देते हैं, वही गाये जाते हैं....|
बाकी के सब...............?
-उनका तो सुराग भी नहीं मिलता कोई....
और तो और इंसान की अपनी पहचान में भी नहीं आते...|
अच्छे बुरे ठीक बे-ठीक का क्या नापतोल....?
अब तो बस एक अलाव......
एक समिधा.....!
और उस शिखा से उड़ते स्फुलिंग
यहाँ से वहाँ बस गिरते ही  दिखाई देते हैं,
.....कुछ दर्द के अवशेष............!

Tuesday, August 14, 2012

"आज़ादी अभिव्यक्ति की मिली हमे जो आज
वैधानिक अधिकार है, क्यूँ न भला हो नाज़
क्यूँ न भला हो नाज़, किसी को कुछ भी कह लें,
"सीता जी" क्यूँ कहें "राम की जोरू" कह लें
कहते हो तो कहा करें कोई बकवादी
"बछिया के ताऊ " समझें क्या है आज़ादी..."
.

Monday, August 13, 2012


... एकाएक लगा कि मैं पूरी तरह सिकुड गयी हूँ...
निसत्व लग रही...
देखते ही देखते जैसे....
सब कुछ थम सा गया है...!
सारा आवेग, सारा आवेश, सारी आपाधापी....!

और हम दोनों ही संवाद के दबाव से खाली हो गए हैं...
चेहरे दिख रहे हैं पर अंगारा बुझ सा गया है...!

फिर अचानक यूँ लगा , मेरे हाथ पैर शिथिल पड़ गए हैं...
पर, चेत इतना चौकस जैसे
चूने से खिची सफ़ेद रेखा पर उठूंग बैठा खिलाड़ी कोई कि,
संकेत मिले और दौड पड़े ,चाहे पता भी ना हो कि
जाना किधर है.....!!!

आधे -अधूरे संकेतों के सहारे
एक पुल की लम्बाई को अपने भीतर
कब से रोप रहीं थीं तुम......?
फिर भी आवाज़ क्यूँ नहीं दीं....?
और मैं पिघलती हुई भी.....
तुम्हारी छाती में खड़खड़ाती  साँसों की आवाज़ सुन रही थी...|
और तुम मेरे देखने को अनदेखा कर रहीं थीं......
............... क्यूँ?
"मेरे भीतर इधर से उधर टकराता अनवरत हाहाकार.....!"

एक सरहद में तुमने दाखिल कर मुझे
बाहर धकेल दिया....
बिना बताये... बिना समझाए... बिना सहलाये.....!
ऐसे में तुम मुझे बहुत निर्दयी लगीं थीं.....
और तुम्हारे ना बोलने से उस घर में
मेरे जाने तक बचे हुए समय के टुकड़े को
ज्यादा ही पीडक  बनाया....|
आह!........ अब मैं नहीं देख सकती कुछ भी.......!

Wednesday, August 8, 2012


मैं नहीं चाहती मेरी मौत सोते में आये
मैं देखना चाहूंगी, समझना चाहूंगी,
जिस 'होने' को मैं घडी घडी पल-पल देख रही हूँ,
उसके पटाक्षेप दर्शन का अधिकार
मुझसे न छीनना ईश्वर.......!
इस दुनिया में मेरे बच रहने वाला अंतिम अधिकार .....!

मैं चाहूंगी, मेरी आँखे आकाश में गड़ी रहें...
और मैं डूबती रहूँ सांस दर सांस.....!!!

बहुत सोच समझ कर ठोंक -बजाकर मैडम जी ने एक स्त्रियों की संस्था बनायी थी.., सोचा अब उन्हें ही देखेंगी, उनके सुख-दुःख, गति प्रगति से वास्ता रखेंगी.. आदि आदि.....
पर ई का हो गया मैडम जी को.....वे तो मर्दों को घेरे से बाहर रखने गयीं थीं,अब उन्ही की  बातों को ले बैठीं.. खूब व्याख्या-स्यख्या भी करने लगीं हैं....भूल गयीं ये भी कि टेढा बांका बोलकर भी बतवा वहीँ तक सीमित है.... उन्ही से लगकर अपने को संदर्भित किया जा रहा है....धत्त तेरे की....! जय हो....!!
सुख दुःख का बावेला उन्ही की टोकरी में भरा है का?

चलो यहाँ तक तो ठीक है कि संस्था में'पुरुष' ओढो..'पुरुष' बिछाओ होता है....पर अब ये क्या कि अपनी ही सरोकार की गेंद बाहर की दीवार से टकरा टकरा कर वापिस लौट जाती है...अपनी परिधि ढूंढती हुई....

".... केंद्र कुछ भी हो परिधि तो अपनी ही बनायी जाती है न.....!!"
........सोच लो मैडम जी......!

Monday, August 6, 2012


इकट्ठी करनी है हमे दीवानों की जमात...... पागलों..... परवानो... और प्रेमियों की,....जिनमे मर मिटने की हिम्मत हो.... जीवन को दावं पर लगाने का  साहस हो.... एक सच्चे जुआरी की तरह!
ऐसे शराबी चाहियें , जो जीवन  के रस को आँखें बंद कर पीते  हो.... (जहाँ लोग पानी भी छान कर पीते हैं..)!
जीवन के रहस्यों  को ऐसे  ही पागल समझते है.,,,,, बुद्धिमान सोचता रह जाता है.....!
हमने देखा, बुद्धि में उलझे लोगों को जो अकर्मण्य ही सिद्ध हुए....आज तक ठीक से व्याख्या भी नहीं कर पाए सही-गलत, शुभ-अशुभ की ..क्यूंकि व्याख्या होती है कृत्यों  से, जीवन से....बुद्धिमानी से सदा दुनिया हताश और उदास ही रही... ये सिर्फ और सिर्फ राख बटोरते आये हैं सिद्धांतों की....!

अब जो भी होगा दीवानों से होगा .. अच्छा भी बुरा भी.....! इसलिए दो तरह के पागलों ने ही अब तक जो किया है ..बस किया है...!
एक पागलपन बुद्धि से गिरना होता है, जैसे हिटलर...स्टेलिन.... चंगेज खान.. तैमूर लंग.. इत्यादि....!
दूसरा पागलपन बुद्धि से ऊपर उठाना..... जैसे कृष्ण... क्राइस्ट.... बुद्ध.... कबीर... आदि....
दोनों एक अर्थों में पागल हैं.... बुद्धि से नीचे या बुद्धि से पार......!

बुद्धि के पार उठिए... और आगे आइये..... है आपमें  ऐसा पागलपन.. दीवानापन..?

     "पहले ही मायूस हो चूका है ज़माना एहले-खिरद से...
       कुछ अजब नहीं , कोई दीवाना काम कर जाए..............."

Sunday, August 5, 2012


मन तो हमेशा गुंधे आटे सा होता है,
लचीला....
कहीं भी मोड लो.....!
भयानक बात तो ये है
कि मन को नहीं पकड़ सकते...
देह को पकड़ लेते हैं.....!
देह होती ही  है ऐसी,
स्थूल, उजागर.. और चुगलखोर...!

"हमलोग कब तक उन बातों के लिए कलंकित होते रहेंगे...
जिन्हें हमने अकेले नहीं किया.....
निषिद्ध कमरों में घुसने का दुस्साहस दोनों करेंगे..
पर काठ की चौखटों पर सिर्फ हमारे सिर ठुकेंगे..
हाँ ...सिर्फ हमारे......"