Wednesday, October 3, 2012

तुम्हारी स्मृतियों में एक जकड़ीली टेर है....
एक आमंत्रण............
स्थिति के भवंर में थरथराती हर स्मृति...!
इनके सानिध्य में अकेले जा बैठने का लालच,
मन में लपलपाया करता है...!
इन्हें प्यास का पर्याय मान कर संजोया है...
दुलारते -मनुहारते हुए...
टेरते-सहलाते हुए...!
एक अदीन कामना का उत्ताप..
एक सिंकी सी आश्वस्ति कि, जो कुछ है वह तुम्ही से सम्बंधित है....!
"एक मुझ अकेली के मन की सुंदरता पर आसक्त है..........."

Tuesday, October 2, 2012

खंडहरों में दीप मेरा जल रहा है.....
विजनता की विषमता को छल रहा है.....!

कह रहा गुजरी कहानी आज रोकर,
भूल में ही प्यार का संगीत होकर...!
श्वास फूले जा रहे हैं मार्ग में ही,
हांफता है साधना का दंभ खोकर!
मिट गयी है क्या मेरी आराधना,
मुक्ति का यह दीप कैसा खल रहा है....?

खंडहरों में दीप मेरा जल रहा है......!
प्रतिपल पाना प्रतिपल खोना
कैसा हंसना कैसा रोना..?
मर-मर होता रोता , जीवन-
का यह कोना कोना....|
साथ जुटाया, मोह जगाया..
फिर भी रहा अकेला.....
हाथ झाडकर चला मुसाफिर,
पास ना कौड़ी -धेला.....|
मानव चला अकेला...............!!
एक गुड- गूंगा स्वाद............!
जिसमे से बार- बार गुज़रा जा सकता है...
रात-बेरात...... आगे-पीछे....
देशकाल की सीमाओं को अंगूठा दिखाकर...|
यह सुख 'अभी-अभी'... 'कभी-कभी'... 'कभी नहीं ' भी हो सकता है...|
.. या उदासी का कोई चीथड़ा उसे अपनी
फडफडाहट में बाँध देता है.....

"इस अनुभव से गाहे-बगाहे गुज़रती हूँ...
फिर अक्सर , स्मृतियों के सहारे अपनी निजता को लौटती हूँ..."
तुम्हे याद करते समय , मन में एक दर्पण सा जगमगाने लगता है.....|
यह एक दूसरा संसार है जो तरल होकर,
मेरे बंद दरवाज़ो की दरारों के नीचे से घुस जाता है..
और मेरे सजे-धजे घर को गीला-सीला कर जाता है....!
"और इनमे से गुज़रती मैं पस्त- ध्वस्त सी हो उठती हूँ......"!!
माँ से पिट कर आई उस लड़की के चेहरे पर 
दर्द का नामोनिशान ना देखा मैंने..
हांफती हुई वह कह रही थी,
" दीदी ..दीदी.. मेरी माँ तो पूरी पागल है 
मुझे पीटते वक्त जो उसका 'झोंटा' खुल जाता है ना,
तो एकदम चुड़ैलों जैसी लगती है- साक्षात!
-पिट रही हूँ इस बात का ध्यान भी नहीं होता.." 

वह रोज ही माँ से पिट कर आती...
बकौल उसके, उसकी माँ को उससे बैर है...|

जानते हैं क्यूँ.......?
-क्यूंकि जब वो पैदा हुई थी , उसके आगे वाला भाई
हैजे से मर गया था..
जिसके हिसाब से यह इसके अशुभ पदार्पण की छाया थी...|
शून्य के दुर्गम विलय में झाँक कर,
नियति विहंसी मूल्य उसका आंक कर..|
कांपती है ज्योति की नन्ही शिखा,
थक चुका है प्राण वैभव मांग कर....|
जगमगा के बुझ गयी दीपावली,
अब अभागा यह अकेला जल रहा है......|
खंडहरों में दीप मेरा जल रहा है.............!!!
सरकार....! सरकार.....! सरकार...............!
सरकार में रहें तो सरकार.....
सरकार के बाहर हैं तो सरकार...........
सरकार नहीं तो सरकार की आँख..............!!

बस्स............ सब फेर बदल की सहूलियत में हैं...............
तिस पर सुरक्षा का सनातन छाता ताने बैठा है.......!
सरकार कुछ कर नहीं सकती.. फिर भी बात मनवाए चली जाती है....
क्यु ना हो देश की ताकत जो साथ है........!!
ये क्या है जो मुझे जीते -जागते...
यहाँ बैठे -बिठाए, टेर ले जाता है...
खींच ले जाता है मेरी जीवनी-शक्ति....
क्षण भर में मैं निरीह- निस्तेज सी लगने लगती हूँ.........!
और चेहरा ऐसे धुआं -धुआं जैसे ,
'भाप की दीवार के पीछे का दर्पण...'.... !!!
अधर सूखे , किन्तु देखा सामने
सब दिशाओं में मिला 'मरुथल' असीम........
प्रेम ढूंढा तो मिले 'निर्गुण' पुजारी-
साध्य की ही साधना तो थी ससीम.....!
फिर कहो, यह नयन कैसे बरस लें?
जब विरह की ज्वाला जलती ही नहीं......
क्या करूँ के अब प्यास लगती ही नहीं...................!

साधना की राह में मैं थी बटोही,
देवता के चरण में चलकर गयी थी.....
पर ह्रदय की मान्यता ही थी अधूरी-
अर्चना के फूल सूखे ले गयी थी;
'मरुथलों ' की साधना भी स्वप्न होती,
स्वप्न की हर बात बनती ही नहीं....|
"क्या करूँ, के अब प्यास लगती ही नहीं......"

देवता के पास आई थी कभी,

आँख तक भी मिला मैं पायी ना थी...
थक गयी माथा झुकाकर सामने,
दर्द भी अपना सुना पायी ना थी ;
जबकि मंदिर के पुजारी ने कहा,
"देवता की नींद खुलती ही नहीं|"

क्या करूँ के अब प्यास लगती ही नहीं.............!
एक मर्सिया जैसा मन में कुछ बज रहा है...
कुछ यादें आग सी जाग रही हैं,
धधक रहीं हैं....
बुझ रही हैं...
चीथड़े हो रहीं हैं.....
घोल बन गयीं हैं और बह रही हैं.....
वह भी नालियों में,
..कीट...कृमि.... कीटाणुओं के साथ.........!
मन से सीधे खोह में....
जीवन से शुन्य में....!
मन अभी भी खाली न हुआ है....
पर तुम भी अभी वहाँ कहीं नहीं...
बस काले चीथड़े हवा में फडफडा रहे हैं..............!!

भोर होती है और डर व्यापता है,
डर..... एक सर्वग्रासी आवेग..!
कभी उघड़ने का डर..
कभी पकडे जाने का डर....
कभी अधूरे समर्पण का डर.....
शरीर के शरीर ना होने का डर...
मन के बेमन होने का डर...
बीती बातों के रिस आने का डर...
'जैसा होना चाहिए वैसा ना होने का डर'-
-और इसकी जवाबदेही मन को पंगु बना कर फेंक देती है...!
-और 'स्त्री' को कितना प्रतिबंधित कर देती है...............
- क्या 'पुरुष' को भी...............?


गुड मॉर्निंग है जी....................!!!