Thursday, September 6, 2012

रेशम के कुर्ते में उसकी ऐंठी हुई लाश.. और मुट्ठी में एक तुडा मुडा पत्र....
पत्र में जो तफ़सील दर्ज थी उसका मतलब कुछ यूँ था...
-'प्रेम की राह में रोडे अटकाने वाले पिता को दंड ,और हम दोनों को मुक्ति,
हमारी अर्थियां साथ -साथ निकाली जाएँ....'

यही आखिरी आरजू थी शेर सिंह चंदेल के इकलौते बेटे की..
अपनी खाल खिंचवाकर बेटे के जूते सिलवा सकते थे शेर सिंह...
पर बनिए की बेटी को सपूत ना सौंप सकते थे..|

सरेआ
म चीख रहे थे इसी चौराहे पे चंदेल कल....
'ठाकुरों का पुंसत्व पुश्तों से इसी तरह अपनी बीजों की रक्षा करता आया है...
किसी ने मूंछें नीची ना की..
बछड़े मुह मारते हैं - मारते रहें...
ये सब तो राजसी मिजाज के लक्षण हैं......'

-और आज एक उन्मादी आर्तनाद ने जगाया चौराहे को....
दहला देने वाला लहरदार चीत्कार रवां हुआ था...
बेटे की मृत्यु की दारुणता चौधरी पर गरजी और विक्षिप्तता बन कर बरसी थी....|
........ एक सिरकूट चीत्कार................!

-दूसरी और.... एक सुन्न सन्नाटा......
अटूट चुप्पी...........
ना चीख .. ना पुकार........ ना क्रंदन... ना विलाप.....|
'बनिए की छोरी की अर्थी आगे बढ़ी.. और टंटा खत्म...........!!

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