Friday, January 27, 2012


आज फिर ...

आज फिर मेसेज मिला उसका
ठीक वैसा ही लिखा था उसने...बरसों बाद भी...
"चलो देखते हैं चाँद को हम-तुम
आज फिर उसी तरह, एक साथ!
ऐसे ही तो देखते थे... पहले भी..!
फिर मीलों दूर बैठ के भी तो देख सकते हैं..
एक साथ!"
"तुम मुझे देखना उसकी नज़रों से.. मैं तुम्हे.."

तीन घंटे बालकनी से आसमान निहार.. झुंझलाकर ये भीतर चली आई...
वो रात भर बैठा रहा छत पे
जले अधजले सिगरेट के टुकड़ों
और बुझी हुई तीलियों के साथ...!
न दिखा चाँद दोनों को....
"आज फिर अमावस की रात थी.......!"

Wednesday, January 25, 2012

सुनो, जहाँ से रिवाजों के बंधन टूटते हैं वहाँ से मेरी दास्ताँ शुरू होती है! जब भी निगाहों के पहरे कसते हैं जज्बातों की गिरफ्त ढीली पड़ती जाती है.. जब पूरे चाँद की रात धरती को भिगोती है...तब आँखों कि सीप में तुम्हारा चेहरा मोती की तरह क़ैद हो जाता है...कभी न आज़ाद होने के लिए.. !!
ये इश्क है इसे तुमने कभी समझा नहीं...लेकिन चाहत के परिंदों को रोकना तुम्हारे वश में न था... न होगा! तुम्हे अपनी ताकत का गुमान है तो हमे अपनी चाहत की कसम है.. ये आँखे अब देखेंगी तो तुम्हारा चेहरा..! चाहे अपनी इज्ज़त का वास्ता दो या जान की कसम.. ये मंजिल की और बढे कदम हैं.. न रुकेंगे न पीछे लौटेंगे...!
हम शहेंशाह हैं प्यार की जागीर के
प्यार इबादत है प्यार खुदा है...
ये आशिक की मजार है..
इक चिराग इश्क का जला दो...
कुछ फूल चढा दो प्यार के...!
आमीन...!!!!
ख्वाबों की वादियाँ हैं , चाहत की आबादी भी...
जिंदगी कि रंगीनियाँ हैं और लम्हों की आजादी भी...
टूटकर यहीं बिखर जाएँ...
आ हम तुझमे सिमट जाएँ....!!!

Friday, January 20, 2012

अजीब उपद्रवी हो भीतर से तुम!
तुम्हारी सारी व्यवस्था ...तार तम्य.. भीतरी संगीत.. स्वर... मेलोडी सब अस्त व्यस्त से हैं...!!!! दिखावा...! छलावा!!
तुम्हारे भीतर आग  जलती है और  सर्दी दिखाते हो... क्रोध उबलता है तो मुस्कुराते हो...भीतर वासना पड़ी है और दिखा रहे हो की सन्यासी हो?
भेडिये कहीं के....!!!!!

गवां दिए वो अवसर तुने जहाँ मैं महा- संगीत पैदा कर रही थी...!!!!
मिथ्या रोगी....!

Wednesday, January 18, 2012

...कभी काठ की चिता पर तो कभी कलंक की...... अग्नि तो अपने ही देते हैं.. प्राय:..!
......और सुलगती है स्त्री..... धू - धू करते हुए अपने अस्तित्व को देख रही है ... आँचल की ओट से!
पृथ्वी की सारी कवितायेँ.. कविताओं के बिम्ब!....गुलाबों के गुच्छे .. हरी घास.!. रौशनी.. !चेहरे पे फैली हँसी, पसरा हुआ विषाद..!.शिशु का क्रंदन .. !सौंदर्य और माधुर्य.. ! खंडहरों के अँधेरे ...विश्वास के टूटे नीवं और अपने सड़े- गले -गंधाते अस्तित्व का अनंत काल से भोग करती आ रही हैं स्त्रियाँ!!

खंड चित्त

तुमसे जो तरंगें निकलती थीं और सारी प्रकृति से उन तरंगों का जो तालमेल था वह टूट सा गया है....जो इनर हार्मोनी थीं वह भी टूट गयीं है... तुमने अपने हाथों से ही सब तालमेल तोड़ डाले हैं.. और अकेली खड़ी हो गयी हो आज -दुश्मन की तरह! तुम्हारा हठ ये कहता है की भावपूर्ण होना मूर्खता है...जबकि तुम ये जानती हो की भावहीन होना मूर्खता है..!!
न बादलों से दोस्ती न नदियों से प्रेम......!

"खंड खंड चित्त, स्व-विरोध में बंटा व्यक्तित्व ..डिस इंटिग्रेटेड व्यक्तित्व ...."
"कल तेरे वीणा के तार बहुत ढीले थे.... संगीत पैदा ही न हुआ ..." ' आज तूने तार बहुत कस लिए हैं.. टूट गया... और संगीत मर गया'!

"मूढ़"!!!!!!!!!!

उठो... जागो!! चौंको... और सजग हो जाओ! नए प्रेम की शुरुआत करो जो शाश्वत हो...!
देह से प्रेम तो बहुत किया .. अदेही से करो.. मृत्यु न होगी तेरे प्रेम की!!!

Wednesday, January 11, 2012

मुझे परतंत्रता में जिलाने की तुम्हारी कोशिश ऐसे ही है जैसे:
"तुम आकाश को  डिब्बों में बंद करना चाहो...
....किरणों को  संदूकों में भरना चाहो...
...........खुशबू को मुट्ठियों में भीचो...."
"यह नहीं हो सकता....."
अस्वाभाविक है....!!! .. मगर..
तुम ऐसा ही करते हो....
और प्रेम के नाम पर जंजीरें रह जाती हैं.... बोझिल!!!!
मुह में तिक्त और कड़वा   स्वाद रह जाता है...................!!!

Tuesday, January 10, 2012

दो  छोटे बच्चे एक ५ साल का एक तीन का.. बातें कर रहे थे धीरे धीरे..छोटे ने पूछा "भैया पढाई से बचने केलिए क्या करूँ" नया स्कूल शुरू हुआ था ...
बड़े भई ने कहा उसके कान में.."देख, तू ' सी ए टी 'कैट  से बचना बस. क्यूंकि अगर तुने इसे सीखा तो बहुत कुछ सीखना पड़ेगा..."! "तू अड़ जाना इसी पे...न सीखना मुझे...इसके  बाद बड़े बड़े शब्द आते हैं... सब सीखना होगा फिर.. मैं फंस गया तू मत फंसना "!!!!!!!

सच है न एक चीज़ को  पकड़ो  तो पकड़ शुरू होती है... फिर दूसरी को पकड़ना पड़े... तीसरी को.. सिलसिला  शुरू!!!
एक श्रंखला है....!!!!
 जीना गुजरना अनुभव से... पकड़ना अनुभव थोड़ी है...!!! और हमेशा अनुभव की संभावना क्यूँ....?? जल्दी क्या है ..किसे है पकड़ने की...? और पुनरुक्ति...आकांक्षा  ही मत करो..!!
क्यूंकि इस अभीप्सा के पीछे यही समझ विकसित होती है की हम बंधन में हैं....!!!
मुझे बंधन पसंद नहीं!!!!!!!!!!!!!!! न...... ना... नहीं!!!

Monday, January 2, 2012

आज अर्जुन की बात....  मैंने आज इसका खोजा/पढ़ा... बड़ा अर्थपूर्ण है "अर्जुन"!!!
ये शब्द है "ऋजु"... जिसका अर्थ होता है सीधा सादा...(straight ).. और  अ-ऋजु का मतलन- टेढ़ा मेढ़ा!!! डावांडोल...!!! इसका शाब्दिक अर्थ है डोलता हुआ...!!!
हमारा चित्त है ये अर्जुन की भांति है,..  डोलता हुआ.. कभी निश्चय नहीं कर पाता.. सारे कार्य अनिश्चय में होते हैं... हाँ सबके भीतर है अर्जुन!!
वही जो हमारे मन का प्रतीक है...!!!मन का एक ढंग है कि आप कितनी निश्चित बात करें वह उसमे से अनिश्चित निकाल ही लेता है.. जैन फिर इसका क्या होगा.. उसका क्या होगा....?
बातें निश्चित नहीं होतीं.. चित्त निश्चित होते हैं!!!सिद्धांत निश्चित नहीं होते, चेतना निश्चित होती है!
बड़ी कृपा अर्जुन की वरना गीता पैदा नहीं होती.. न वे उठाते प्रश्न न कृष्ण उत्तर देते.. न लिखी जाती गीता!!! कृष्ण जैसे लोग लिखते नहीं सिर्फ responce करते हैं..!! लिखते तो वे लोग हैं जो किसी पे कुछ थोपना चाहते हैं.... कृष्ण तो सिर्फ उत्तर देते हैं.. पुकारने पे आते हैं!!!कोई कुछ न पूछे तो कृष्ण शुन्य और मौन रह जायेंगे..!!!
कृष्ण से कुछ लिया न जा सकता है सिर्फ बुलवाया जा सकता है...प्रतिसंवेदित कर सकते  हैं! अर्जुन ने बुलवाने का काम किया है...उनकी जिज्ञासा उनके प्रश्न कृष्ण के भीतर से तब जन्म पाते हैं..!!!