Wednesday, November 30, 2011

बख्शी है मुसलसल एक तड़प तो इतना एहसां और करो,
हम पर भी नज़र वो जाये, जो दोनों जहाँ गरमाती है...!!
ये हार हमारी हार है वो...
जो तेरी जीत को भी शरमाती है ...!!!!

Tuesday, November 29, 2011

मेरे भक्त वत्सल गोपाल !!
क्या तुमने समझा है इस 'वात्सल्य' को? जाना है अर्थ इसका? हाँ ये ऐसा प्रेम है जैसा माँ का छोटे बच्चे से. बच्चे में कोई योग्यता नहीं है.. न वो तुम्हे कुछ कमा के दे रहा है.. न यूनिवर्सिटी का गोल्ड मेडल है उसके पास! पर माँ उस से अथाह प्रेम करती है... ये प्रेम किसी योग्यता के कारण नहीं है! बच्चा तो अपात्र , अबोध, असहाय है. उस से कुछ उत्तर भी तो नहीं मिलता! इसलिए इस प्रेम में सौदा ही नहीं सिर्फ देना है.. एक बेशर्त दान... वो तो धन्यवाद भी नहीं कहता....!!
और जब मैं कहती हूँ "हरि मोरे जीवन प्राण अधार, और आसरो नहीं तुम बिन, तीनो लोक मझार".. तो ये कह रही हूँ तुमसे कि मैं अपात्र हूँ; असहाय हूँ; कोई योग्यता भी नहीं ;प्रत्युत्तर में देने को मेरे पास तो कुछ भी नहीं है उसी बच्चे कि भांति... फिर भी.... हाँ फिर भी तुम देते हो!!!
जय श्री कृष्ण...!

Friday, November 25, 2011

तुम जानते हो......? तुम्हारा स्वर मेरे स्वर से मिल गया है. तुम्हारे बावजूद तुम समस्वर हो आते हो मेरे साथ.. कभी कभार....!! हो सकता है कभी कभार.... क्यूंकि ये मिलन तभी सम्भव है जब तुम स्वयं को भूलते हो... और उस क्षण तुम पाते हो कि तुम्हारा स्थान खाली है... भले ही क्षणिक हो ये पर तुमने सत्य देख लिया है... जैसे बांस कि खोखली बांसुरी और उसके भीतर से बह रहे संगीत का चमत्कार देख लिया है...! 
ये आकाश कि भांति एक एहसास है समस्वर होने के बाद भी लगता है वह नहीं है.. तुम भयभीत होते हो घबराते हो.. होता है ऐसा...!!! 

एक बात और.. अब मेरी उपस्थिति भी अनुपस्थित हो रही है..मैं हूँ भी नहीं भी...!!!
तुम जितने सजग हो रहे हो.. समर्थ हो रहे हो.. सफल हो रहे हो.. मैं शुन्य हो रही!!
बस एक स्वाद एक आभास हूँ.....!!

Thursday, November 10, 2011

ज़िन्दगी तेरी इबादत के तरफदार रहे
लाजिमी था कि मेरी राह दुश्वार रहे.

रो सके आप से लिपट कर न गले मिल पाए
ऐसे तलवार सा खिच जाना तो बेकार रहे.

अब मेरे शहर कि रस्मो का तकाजा है ये
दिल हो नाशाद पर मुस्कान असरदार रहे.

बस इसी जुर्म पे छीनी गयीं मेरी नींदें,
क्यूँ अंधेरों में मेरे ख्वाब चमकदार रहे.

है तेरी याद कि पुरवाई मयस्सर मुझको,
और होंगे जो  बहारों के तलबगार रहे.

Saturday, November 5, 2011

सारे जहाँ को रौशन कर सकते थे जिस शमां से हम..
झुलसा दिया गुलशन को , और खुद भी झुलस गए...!!!!
मुस्कान के इरादे अश्कों में ढल गए
आये बहार बन के खिज़ा बन के ढल गए.

हकीकत न जान पाए गम और खुशी कि हम,
थे गुल गले लगाये काँटों में छल गए.

डूबे कभी यादों में खोये कभी ख्वाबों में,

दो कलों में आज के बर्बाद पल गए.

नज़रें तो टिकीं हुईं थी चाँद और तारों पे,
खुद अपनी आँगन के ज़मीन पे फिसल गए.

दूर दूर तक खोजा करती हैं जिन्हें निगाहें
अफ़सोस बहुत पास से मेरे वो निकल गए.

मालूम न चल सका कब मौत आ गयी,
यूँ हौले हौले हाथों से बरसों नकल गए.

Wednesday, November 2, 2011



‎"क़त्ल" करके आये हो
और कहते हो तरन्नुम चाहिए
चलो.... बने रहो गरम तार बदमिजाज.. झाड झंखार
खेलते रहो -
मेरे कदमो से.. मेरी आहटों से..
मेरी कृतियों से , मेरी कनपटियों से...
समाई है मुझमे तेरी भी पत्नी.. तेरी माँ... तेरी बहन भी...
पर कभी न कभी.."सामा- चकेवा" खेलती औरतें..
रौन्देंगी तुम्हे..
उन ढेलों कि तरह...
फिर करवट लूंगी मैं...
गवाही मांगूंगी..
तेरी लाश से... तेरी कुकृति की !!!!