Wednesday, October 3, 2012

तुम्हारी स्मृतियों में एक जकड़ीली टेर है....
एक आमंत्रण............
स्थिति के भवंर में थरथराती हर स्मृति...!
इनके सानिध्य में अकेले जा बैठने का लालच,
मन में लपलपाया करता है...!
इन्हें प्यास का पर्याय मान कर संजोया है...
दुलारते -मनुहारते हुए...
टेरते-सहलाते हुए...!
एक अदीन कामना का उत्ताप..
एक सिंकी सी आश्वस्ति कि, जो कुछ है वह तुम्ही से सम्बंधित है....!
"एक मुझ अकेली के मन की सुंदरता पर आसक्त है..........."

Tuesday, October 2, 2012

खंडहरों में दीप मेरा जल रहा है.....
विजनता की विषमता को छल रहा है.....!

कह रहा गुजरी कहानी आज रोकर,
भूल में ही प्यार का संगीत होकर...!
श्वास फूले जा रहे हैं मार्ग में ही,
हांफता है साधना का दंभ खोकर!
मिट गयी है क्या मेरी आराधना,
मुक्ति का यह दीप कैसा खल रहा है....?

खंडहरों में दीप मेरा जल रहा है......!
प्रतिपल पाना प्रतिपल खोना
कैसा हंसना कैसा रोना..?
मर-मर होता रोता , जीवन-
का यह कोना कोना....|
साथ जुटाया, मोह जगाया..
फिर भी रहा अकेला.....
हाथ झाडकर चला मुसाफिर,
पास ना कौड़ी -धेला.....|
मानव चला अकेला...............!!
एक गुड- गूंगा स्वाद............!
जिसमे से बार- बार गुज़रा जा सकता है...
रात-बेरात...... आगे-पीछे....
देशकाल की सीमाओं को अंगूठा दिखाकर...|
यह सुख 'अभी-अभी'... 'कभी-कभी'... 'कभी नहीं ' भी हो सकता है...|
.. या उदासी का कोई चीथड़ा उसे अपनी
फडफडाहट में बाँध देता है.....

"इस अनुभव से गाहे-बगाहे गुज़रती हूँ...
फिर अक्सर , स्मृतियों के सहारे अपनी निजता को लौटती हूँ..."
तुम्हे याद करते समय , मन में एक दर्पण सा जगमगाने लगता है.....|
यह एक दूसरा संसार है जो तरल होकर,
मेरे बंद दरवाज़ो की दरारों के नीचे से घुस जाता है..
और मेरे सजे-धजे घर को गीला-सीला कर जाता है....!
"और इनमे से गुज़रती मैं पस्त- ध्वस्त सी हो उठती हूँ......"!!
माँ से पिट कर आई उस लड़की के चेहरे पर 
दर्द का नामोनिशान ना देखा मैंने..
हांफती हुई वह कह रही थी,
" दीदी ..दीदी.. मेरी माँ तो पूरी पागल है 
मुझे पीटते वक्त जो उसका 'झोंटा' खुल जाता है ना,
तो एकदम चुड़ैलों जैसी लगती है- साक्षात!
-पिट रही हूँ इस बात का ध्यान भी नहीं होता.." 

वह रोज ही माँ से पिट कर आती...
बकौल उसके, उसकी माँ को उससे बैर है...|

जानते हैं क्यूँ.......?
-क्यूंकि जब वो पैदा हुई थी , उसके आगे वाला भाई
हैजे से मर गया था..
जिसके हिसाब से यह इसके अशुभ पदार्पण की छाया थी...|
शून्य के दुर्गम विलय में झाँक कर,
नियति विहंसी मूल्य उसका आंक कर..|
कांपती है ज्योति की नन्ही शिखा,
थक चुका है प्राण वैभव मांग कर....|
जगमगा के बुझ गयी दीपावली,
अब अभागा यह अकेला जल रहा है......|
खंडहरों में दीप मेरा जल रहा है.............!!!
सरकार....! सरकार.....! सरकार...............!
सरकार में रहें तो सरकार.....
सरकार के बाहर हैं तो सरकार...........
सरकार नहीं तो सरकार की आँख..............!!

बस्स............ सब फेर बदल की सहूलियत में हैं...............
तिस पर सुरक्षा का सनातन छाता ताने बैठा है.......!
सरकार कुछ कर नहीं सकती.. फिर भी बात मनवाए चली जाती है....
क्यु ना हो देश की ताकत जो साथ है........!!
ये क्या है जो मुझे जीते -जागते...
यहाँ बैठे -बिठाए, टेर ले जाता है...
खींच ले जाता है मेरी जीवनी-शक्ति....
क्षण भर में मैं निरीह- निस्तेज सी लगने लगती हूँ.........!
और चेहरा ऐसे धुआं -धुआं जैसे ,
'भाप की दीवार के पीछे का दर्पण...'.... !!!
अधर सूखे , किन्तु देखा सामने
सब दिशाओं में मिला 'मरुथल' असीम........
प्रेम ढूंढा तो मिले 'निर्गुण' पुजारी-
साध्य की ही साधना तो थी ससीम.....!
फिर कहो, यह नयन कैसे बरस लें?
जब विरह की ज्वाला जलती ही नहीं......
क्या करूँ के अब प्यास लगती ही नहीं...................!

साधना की राह में मैं थी बटोही,
देवता के चरण में चलकर गयी थी.....
पर ह्रदय की मान्यता ही थी अधूरी-
अर्चना के फूल सूखे ले गयी थी;
'मरुथलों ' की साधना भी स्वप्न होती,
स्वप्न की हर बात बनती ही नहीं....|
"क्या करूँ, के अब प्यास लगती ही नहीं......"

देवता के पास आई थी कभी,

आँख तक भी मिला मैं पायी ना थी...
थक गयी माथा झुकाकर सामने,
दर्द भी अपना सुना पायी ना थी ;
जबकि मंदिर के पुजारी ने कहा,
"देवता की नींद खुलती ही नहीं|"

क्या करूँ के अब प्यास लगती ही नहीं.............!
एक मर्सिया जैसा मन में कुछ बज रहा है...
कुछ यादें आग सी जाग रही हैं,
धधक रहीं हैं....
बुझ रही हैं...
चीथड़े हो रहीं हैं.....
घोल बन गयीं हैं और बह रही हैं.....
वह भी नालियों में,
..कीट...कृमि.... कीटाणुओं के साथ.........!
मन से सीधे खोह में....
जीवन से शुन्य में....!
मन अभी भी खाली न हुआ है....
पर तुम भी अभी वहाँ कहीं नहीं...
बस काले चीथड़े हवा में फडफडा रहे हैं..............!!

भोर होती है और डर व्यापता है,
डर..... एक सर्वग्रासी आवेग..!
कभी उघड़ने का डर..
कभी पकडे जाने का डर....
कभी अधूरे समर्पण का डर.....
शरीर के शरीर ना होने का डर...
मन के बेमन होने का डर...
बीती बातों के रिस आने का डर...
'जैसा होना चाहिए वैसा ना होने का डर'-
-और इसकी जवाबदेही मन को पंगु बना कर फेंक देती है...!
-और 'स्त्री' को कितना प्रतिबंधित कर देती है...............
- क्या 'पुरुष' को भी...............?


गुड मॉर्निंग है जी....................!!!

Thursday, September 6, 2012

रेशम के कुर्ते में उसकी ऐंठी हुई लाश.. और मुट्ठी में एक तुडा मुडा पत्र....
पत्र में जो तफ़सील दर्ज थी उसका मतलब कुछ यूँ था...
-'प्रेम की राह में रोडे अटकाने वाले पिता को दंड ,और हम दोनों को मुक्ति,
हमारी अर्थियां साथ -साथ निकाली जाएँ....'

यही आखिरी आरजू थी शेर सिंह चंदेल के इकलौते बेटे की..
अपनी खाल खिंचवाकर बेटे के जूते सिलवा सकते थे शेर सिंह...
पर बनिए की बेटी को सपूत ना सौंप सकते थे..|

सरेआ
म चीख रहे थे इसी चौराहे पे चंदेल कल....
'ठाकुरों का पुंसत्व पुश्तों से इसी तरह अपनी बीजों की रक्षा करता आया है...
किसी ने मूंछें नीची ना की..
बछड़े मुह मारते हैं - मारते रहें...
ये सब तो राजसी मिजाज के लक्षण हैं......'

-और आज एक उन्मादी आर्तनाद ने जगाया चौराहे को....
दहला देने वाला लहरदार चीत्कार रवां हुआ था...
बेटे की मृत्यु की दारुणता चौधरी पर गरजी और विक्षिप्तता बन कर बरसी थी....|
........ एक सिरकूट चीत्कार................!

-दूसरी और.... एक सुन्न सन्नाटा......
अटूट चुप्पी...........
ना चीख .. ना पुकार........ ना क्रंदन... ना विलाप.....|
'बनिए की छोरी की अर्थी आगे बढ़ी.. और टंटा खत्म...........!!

Wednesday, September 5, 2012

मन फिर हल्का हो आया है.... रुई जैसा...!
हाँ, रुई है सो हलकी लगे पर धुनक दो तो इतनी... इत ........नी..............
...कि कहाँ रखें......|
.. कुछ कुछ ऐसा ही आवेग....!
इतना उत्तेजन बरसों बाद जाना....
और इसे मैं अगर समझाना चाहूँ तुम्हे....
तो गले में एक गाँठ सी अड जाती है...
जैसे आगे बोलना पड़ा तो शर्मसारी की चादर उघड जायेगी....|
.. और मैं भीख मांगती लगूंगी.....!!

"मैं..... हाँ ... मैं.... मेरा कोई मन या मेरी इच्छा नहीं.....?"
ये शब्द भीतर ही भीतर बिलबिला जाते हैं.....
और उचारे नहीं जाते....|

फिर अपना चेहरा देखती हूँ मिटटी सा वर्णहीन.....
...और धुआंसी आँखें....!

मन में अब कोई कच्चापन नहीं.....
सालों से बंजर पसरापन है...और...
होंठो पे एक सुबकी उचकती है.......!

"लो, मुह फेर के बैठ गयी मैं..........."

Tuesday, September 4, 2012

समझो, संकट सिर्फ मिटटी को मिटटी बनाने नहीं आते....
जीने को जीने लायेक बनाने आते हैं...|

संकट अधबीच थक जाने के .. ढह जाने के... 
जीते जी भीतर से रीत जाने के भी होते हैं...|
जिंदगी की लांघती फलांगती रफ़्तार के सामने अपने घिसटने को
ना सह पाने के भी होते हैं...|

कभी संकट जीते जी हौसले को खो देने के भी होते हैं..
और कभी संकट जीना चाहने और जीने कि मोहलत खत्म हो
जाने के भी होते हैं...|
अंतत: संकट फिर से जीवन को जीने लायेक ही बनाने के होते हैं....|

Monday, September 3, 2012

२ सितंबर २००९ ... उनसे मेरी आखिरी बात हुई थी.... पूरे १७ मिनट ४० सेकेण्ड की बात चीत में लाखों दुआएं और शुभकामनाएं शामिल थीं.... उनका अंतिम वाक्य मेरे लिए यही था," रश्मि, तुम्हारी अपनी आइडेंटिटी है... दो कुल ही क्यूँ पूरे राष्ट्र का नाम रौशन करो.... सिर्फ मिसेज़ अमिताभ बन कर ना रहना... रश्मि मिश्रा हो और बनी रहो.... तुम्हारे नाम से हम जाने जाएँ तो ये फक्र की बात होगी.... सदा सुखी रहो......" 
मैं उ
स वक्त बंगलोर के सी. एम्. एच अस्पताल में थी.... मेरी आँखों में आंसू थे और बोलने को शब्द खत्म थे....!
आज के दिन ही यानी चार सितंबर २००९ को वे हमे छोड़ के चले गए सदा के लिए..... और उनसे बात चीत का क्रम भी टूट गया... जिनसे मैं हर दिन बात करती थी.... मैं फोन किया करती घर में लोग कह देते कि बीमार हैं... सोये हैं अभी इंजेक्शन दिया गया है.. इत्यादि.. १५ वें दिन मुझे खबर मिली थी कि दादाजी नहीं रहे .... मुझे उनकी मृत्युं का समाचार देने की हिम्मत किसी में ना थी..!
"मेरी भी मृत्यु हो चुकी इसी के साथ.. हाँ साँसे चल रही हैं.. थोडा होश भी है...."!

जहाँ मुझमे और मेरी जीवन शैली में लोगों ने.. रिश्तेदारों ने... सिर्फ मीन मेख ही निकाले....मुझे अच्छी बेटी.. अच्छी बहु.. अच्छी पत्नी इत्यादी होने के उपदेश ही मिले... मैं कभी किसी के लिए परफेक्ट ना रही.. विवाहपूर्व और विवाहोपरांत भी......!
उनके लिए.... मुझसे अगर कोई परफेक्ट हो तो वो इंसान ना होगा ... उनकी नज़र में मैं थी परफेक्ट! और मुझे फक्र है...!
इतना प्यार मुझे किसी ने ना दिया.... जितना की उन्होंने,..."ना भूतो ना भविष्यति" की तर्ज़ पे.... इतना प्रेम शायेद कोई दे भी ना पाए...!
"आज मेरे दादाजी की तीसरी पुण्यतिथि है...... बहुत मिस कर रही हूँ.... बहुत...."

'लव यू...... बाबाजी....'

Wednesday, August 29, 2012


मन में गड्ड-मड्ड है.....
याचना का दंश..... अपनी लाचारी .... समय का फेरबदल....!
चाहा था कभी कि, अपनी इच्छा के ताप से
दलदल के इस महाकुंड की चौड़ाई को पार करूँ....|
इस महायज्ञ में मेरी इक छोटी सी समिधा भी याचना से नहीं,
संकल्प और सदिच्छा से सिंकी हुई हो....
'मुझे उत्सर्ग का बल दो.....'
और हाथ में कुछ ना दो....!

तुम्हारे ना होने की पीड़ा भी मैं ऐसे ही सन्दर्भ से जानूंगी....!
"निस्सहायता की पीड़ा... फिर समाधान की चमक..."
फिर सुबह के इंतज़ार का आवेश.....!
हर मनोवेग उस्तरे की  तरह नींद की चमड़ी को चीरता हुआ सा......
फिर भी मन में शिथिलता नहीं,
उठने के साथ ही ढून्ढ रही खुद को......
जहाँ- तहां ...........भीतर -बाहर....
मन फिर से घायल हो गया......!!

Thursday, August 23, 2012


सुनो जी एक मज़ेदार कहानी.... एक आदमी को बिमारी हो गयी थी कब्जियत की..... महा बीमारी.....! २ महीने बीत गए और मल-विसर्जन नहीं हुआ था... डॉक्टर हैरान परेशान .. सारी दवाइयां  फेल!! इतने में  खबर आई कि जर्मनी में एक दवा बनी है जो इन्हें ठीक कर दे... दवाई मंगाई गयी... चिकित्सकों ने सोचा 'ये कोई साधारण आदमी तो हैं नहीं  ... इस ने दो महीने से साधा  हुआ है... संयमी.. महायोगी!!! तो इसे पूरी बोतल पिला दो....'
तीसरे दिन डॉक्टर उसके घर गए देखने को कि असर हुआ या नहीं..... पता चला आदमी मर गया और मल -विसर्जन जारी है...!लोग अर्थी सजाये बैठे हैं और वो संडास में बैठा है.....!

हाँ तो.... हमारे नेता लोग भी  कुछ ऐसे ही हैं..... ७० ..८०.. साल क होगये हैं अभी भी जमे हैं दिल्ली में... दम खम तो कब का मर चुका है.. पर मल -विसर्जन रुक नहीं रहा.....! दौड जारी  है.... कुर्सी नहीं छूट रही...एक एक कुर्सी पर तीन तीन लोग जमे हैं.... धक्का मुक्की  खूब है.....!
जय राम जी की......!!

Thursday, August 16, 2012


                      कभी-कभी
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कभी-कभी लगता है मेरी इस आवाज़ को सोख रहा मेरा चेहरा,
मैं एकदम से देख लूं -इसी क्षण.......!
फिर एकाएक सारे रहस्यों की पोटली भी खोल दूं ....
और अपने ऊपर नीचे, आगे-पीछे, तानी गयी अपनी
अगाध मंशा के दाने भी बिखेर दूं...!

फिर कभी-कभी लगता है......
सब मेरी समझ के बाहर हो गया है...
और इसे सोख लेने के लिए
मुझे जन्म के साथ मिली मेरी ही पुरानी खाल पर
बिछे सारे रोमकूप बेकार हो जाते हैं...!
..... और...
और मैं फिर से रुआंसी हो जाती हूँ.............!!

Wednesday, August 15, 2012


देख तमाशा इस दुनिया का....!
सारे दुःख दर्द जो दिखाई देते हैं, वही गाये जाते हैं....|
बाकी के सब...............?
-उनका तो सुराग भी नहीं मिलता कोई....
और तो और इंसान की अपनी पहचान में भी नहीं आते...|
अच्छे बुरे ठीक बे-ठीक का क्या नापतोल....?
अब तो बस एक अलाव......
एक समिधा.....!
और उस शिखा से उड़ते स्फुलिंग
यहाँ से वहाँ बस गिरते ही  दिखाई देते हैं,
.....कुछ दर्द के अवशेष............!

Tuesday, August 14, 2012

"आज़ादी अभिव्यक्ति की मिली हमे जो आज
वैधानिक अधिकार है, क्यूँ न भला हो नाज़
क्यूँ न भला हो नाज़, किसी को कुछ भी कह लें,
"सीता जी" क्यूँ कहें "राम की जोरू" कह लें
कहते हो तो कहा करें कोई बकवादी
"बछिया के ताऊ " समझें क्या है आज़ादी..."
.

Monday, August 13, 2012


... एकाएक लगा कि मैं पूरी तरह सिकुड गयी हूँ...
निसत्व लग रही...
देखते ही देखते जैसे....
सब कुछ थम सा गया है...!
सारा आवेग, सारा आवेश, सारी आपाधापी....!

और हम दोनों ही संवाद के दबाव से खाली हो गए हैं...
चेहरे दिख रहे हैं पर अंगारा बुझ सा गया है...!

फिर अचानक यूँ लगा , मेरे हाथ पैर शिथिल पड़ गए हैं...
पर, चेत इतना चौकस जैसे
चूने से खिची सफ़ेद रेखा पर उठूंग बैठा खिलाड़ी कोई कि,
संकेत मिले और दौड पड़े ,चाहे पता भी ना हो कि
जाना किधर है.....!!!

आधे -अधूरे संकेतों के सहारे
एक पुल की लम्बाई को अपने भीतर
कब से रोप रहीं थीं तुम......?
फिर भी आवाज़ क्यूँ नहीं दीं....?
और मैं पिघलती हुई भी.....
तुम्हारी छाती में खड़खड़ाती  साँसों की आवाज़ सुन रही थी...|
और तुम मेरे देखने को अनदेखा कर रहीं थीं......
............... क्यूँ?
"मेरे भीतर इधर से उधर टकराता अनवरत हाहाकार.....!"

एक सरहद में तुमने दाखिल कर मुझे
बाहर धकेल दिया....
बिना बताये... बिना समझाए... बिना सहलाये.....!
ऐसे में तुम मुझे बहुत निर्दयी लगीं थीं.....
और तुम्हारे ना बोलने से उस घर में
मेरे जाने तक बचे हुए समय के टुकड़े को
ज्यादा ही पीडक  बनाया....|
आह!........ अब मैं नहीं देख सकती कुछ भी.......!

Wednesday, August 8, 2012


मैं नहीं चाहती मेरी मौत सोते में आये
मैं देखना चाहूंगी, समझना चाहूंगी,
जिस 'होने' को मैं घडी घडी पल-पल देख रही हूँ,
उसके पटाक्षेप दर्शन का अधिकार
मुझसे न छीनना ईश्वर.......!
इस दुनिया में मेरे बच रहने वाला अंतिम अधिकार .....!

मैं चाहूंगी, मेरी आँखे आकाश में गड़ी रहें...
और मैं डूबती रहूँ सांस दर सांस.....!!!

बहुत सोच समझ कर ठोंक -बजाकर मैडम जी ने एक स्त्रियों की संस्था बनायी थी.., सोचा अब उन्हें ही देखेंगी, उनके सुख-दुःख, गति प्रगति से वास्ता रखेंगी.. आदि आदि.....
पर ई का हो गया मैडम जी को.....वे तो मर्दों को घेरे से बाहर रखने गयीं थीं,अब उन्ही की  बातों को ले बैठीं.. खूब व्याख्या-स्यख्या भी करने लगीं हैं....भूल गयीं ये भी कि टेढा बांका बोलकर भी बतवा वहीँ तक सीमित है.... उन्ही से लगकर अपने को संदर्भित किया जा रहा है....धत्त तेरे की....! जय हो....!!
सुख दुःख का बावेला उन्ही की टोकरी में भरा है का?

चलो यहाँ तक तो ठीक है कि संस्था में'पुरुष' ओढो..'पुरुष' बिछाओ होता है....पर अब ये क्या कि अपनी ही सरोकार की गेंद बाहर की दीवार से टकरा टकरा कर वापिस लौट जाती है...अपनी परिधि ढूंढती हुई....

".... केंद्र कुछ भी हो परिधि तो अपनी ही बनायी जाती है न.....!!"
........सोच लो मैडम जी......!

Monday, August 6, 2012


इकट्ठी करनी है हमे दीवानों की जमात...... पागलों..... परवानो... और प्रेमियों की,....जिनमे मर मिटने की हिम्मत हो.... जीवन को दावं पर लगाने का  साहस हो.... एक सच्चे जुआरी की तरह!
ऐसे शराबी चाहियें , जो जीवन  के रस को आँखें बंद कर पीते  हो.... (जहाँ लोग पानी भी छान कर पीते हैं..)!
जीवन के रहस्यों  को ऐसे  ही पागल समझते है.,,,,, बुद्धिमान सोचता रह जाता है.....!
हमने देखा, बुद्धि में उलझे लोगों को जो अकर्मण्य ही सिद्ध हुए....आज तक ठीक से व्याख्या भी नहीं कर पाए सही-गलत, शुभ-अशुभ की ..क्यूंकि व्याख्या होती है कृत्यों  से, जीवन से....बुद्धिमानी से सदा दुनिया हताश और उदास ही रही... ये सिर्फ और सिर्फ राख बटोरते आये हैं सिद्धांतों की....!

अब जो भी होगा दीवानों से होगा .. अच्छा भी बुरा भी.....! इसलिए दो तरह के पागलों ने ही अब तक जो किया है ..बस किया है...!
एक पागलपन बुद्धि से गिरना होता है, जैसे हिटलर...स्टेलिन.... चंगेज खान.. तैमूर लंग.. इत्यादि....!
दूसरा पागलपन बुद्धि से ऊपर उठाना..... जैसे कृष्ण... क्राइस्ट.... बुद्ध.... कबीर... आदि....
दोनों एक अर्थों में पागल हैं.... बुद्धि से नीचे या बुद्धि से पार......!

बुद्धि के पार उठिए... और आगे आइये..... है आपमें  ऐसा पागलपन.. दीवानापन..?

     "पहले ही मायूस हो चूका है ज़माना एहले-खिरद से...
       कुछ अजब नहीं , कोई दीवाना काम कर जाए..............."

Sunday, August 5, 2012


मन तो हमेशा गुंधे आटे सा होता है,
लचीला....
कहीं भी मोड लो.....!
भयानक बात तो ये है
कि मन को नहीं पकड़ सकते...
देह को पकड़ लेते हैं.....!
देह होती ही  है ऐसी,
स्थूल, उजागर.. और चुगलखोर...!

"हमलोग कब तक उन बातों के लिए कलंकित होते रहेंगे...
जिन्हें हमने अकेले नहीं किया.....
निषिद्ध कमरों में घुसने का दुस्साहस दोनों करेंगे..
पर काठ की चौखटों पर सिर्फ हमारे सिर ठुकेंगे..
हाँ ...सिर्फ हमारे......"

Monday, July 30, 2012


चलिए  आज मिलते हैं दस  रहस्यमयी  औरतों  से:-

१.कुंती: अविवाहित मा बनना, और नियोग से बच्चों को जन्म देना, पांच पुत्रों से द्रौपदी का विवाह करना|

२. द्रौपदी: पांच पतियों को कुशलता से निभाना उन्हें रहस्यमयी बनाता है|

३ क्लियोपेट्रा: एक सुंदरतम स्त्री, सौंदर्य बरकरार रखने के लिए गद्धी के दूध से स्नान करती थी. उनके चरित्र का रहस्य, प्रेम किसी और से, सपने किसी से , शादी किसी से|

४. मोनालिसा: कोई वाकई थी या चित्रकार की कल्पना. आज भी रहस्य है..|

५. अमृता प्रीतम: ज्ञानपीठ और पद्म विभूषण से सम्मानित सुप्रसिद्ध लेखिका, जिनके  लिए प्रेम और स्वतंत्रता के बड़े मायने रहे. चित्रकार इमरोज़ के साथ बिना विवाह लंबा सम्बन्ध जिया

६.प्रिंसेस डायना: शाही रसोइये से लेकर घुडसवार तक से संबधो में लिप्त होना ..एक अरब रईस के बेटे से इश्क होना और दुर्घटना में मौत|

७. सुरैया: उनके गाने जब रेडियो में बजते थे तो तांगेवाला कहता था"बाबूजी पहले सुरैया को सुन लूं फिर चलूँगा.."
पाकिस्तान के पूर्वा प्रधानमंत्री स्व. भुट्टो उनसे शादी करना चाहते थे| एक जनाब तो बरात ले कर पहुँच गए थे तो पुलिस ने हवालात में डाल दिया वहाँ दुल्हे मिया ज़हर खा लिया ...
देवानंद के प्रेम में ऐसी पड़ीं कि सारा जीवन उनकी याद में बिता दिया  अपनी नानी बादशाह बेगम के कारण शादी ना कर सकीं

८. हेमा मालिनी: विवाहित धर्मेन्द्र से शादी, अपने बूते पे बच्चे पालना और आज भी नयी हिरोइनों को अपनी खूबसूरती से मात देना.

९. रेखा: व्यक्तिगत जीवन को जाहिर कभी ना किया... जल्दी इंटरव्यू नहीं देतीं.. गोलमोल जवाब देतीं हैं..!

१० ............: अपने बारे में चर्चा फिर कभी करुँगी....!!

Sunday, July 29, 2012


तुम्हारे साथ के वो सुन्दर पल,
महकती वादियाँ ,
गाती घड़ियाँ
खुशनुमा लम्हे..
खूबसूरत यादें
तुम्हारा चेहरा तुम्हारी खुशबू...!
"तुम्हारा होना..
मेरा होना...."
और इसी से बीतता हर पल..!

"तुम्हे पता तो होगा ही कि,
मैं वक्त के साथ नहीं,
.... वक्त मेरे साथ चल रहा  है...."

"या के वक्त मुझे छल रहा है...."
"...............????"

Tuesday, July 24, 2012

आठ साल पहले राव दम्पति अपनी बेटी के शोध कार्य के लिए विदेश गए... अपने पिता श्री वी. एस . राव को एक ओल्ड एज होम में दाखिल करा के... २००९ में बिटिया वेल सेटलड थी.... श्री राव अभी भी बंगलोर एक वृद्धाश्रम में हैं... न तो उनके बेटे यहाँ आये न ये गए उनके पास... हाँ अच्छी रकम आ जाती है संस्था के नाम इनके इलाज के लिए... डेढ़ साल से ये परालाइज्ड हैं... !
जीने की इच्छा खो चुके श्री राव, अपनी लंबी चौड़ी मौत खुली आँखों से देखना चाहते हैं.... न डर... न भय .. और न ही कुछ पाने खोने की तमन्ना...! उनसे बातचीत के आधार पर उनकी इच्छा से अवगत हुए हम.. उन्हें जाना.. पहचाना.. जीवन का एक पहलु भी देखा!
ये पंक्तियाँ....
(अनुवाद- कन्नड़ से हिंदी..)

उसने अपने बाएं हाथ से दायाँ हाथ
पूरा छू लिया...छूता रहा..परन्तु कोई स्पंदन नहीं....
कल ही डॉक्टर ने कहा था कि उसका दायाँ भाग मर चुका है..
मन ही मन हंसा था वह,'क्या ऐसा भी होता है..?
-व्यक्ति मर जाए आधा.. और आधा जीवित रहे..?
-आधा भाग अपना हो और आधा पराया...?
आधा सबकुछ सह सके.. और आधा जड़ हो जाए..?'

"जैसे खूटी पर टंगा हो वह, और नीचे देखता हो...
-चलता हुआ संसार.... कुछ जीवित, कुछ मृत...!
और पल पल वह अपनी मृत्यु देखता रहे..
आधा मृत.. और आधा प्रक्रिया में मरने की ....!"
.......
...
'उसकी इच्छा है ... बाहर विराट नीलिमा के अमाप विस्तार
को बाहों में भरना....
महसूसना.....
बाहों न भर सके तो....
आँखों में उतारना...
पूरा का पूरा....
अचूक!!!!'

यहां से कोई रास्ता आगे नहीं जाता..
जा भी नहीं सकता.. क्यूंकि,
आगे भविष्य के कब्रिस्तान की शुरू हो चुकी सीमा है...!
-अतीतों की तरह बेजान होते जाते भविष्य की...!

और (तुमसे) अपेक्षाएं... जैसे,
साबुन के बुलबुले...
-आकर्षक, रंगीन पर क्षणजीवी...!

हाँ अंधे मोड भी देखो , दोनों तरफ
-और  घूरता हुआ भौचक्का वर्तमान..!

पर जब तक पांव है, उनके साथ जुडी है चलते रहने की
एक परिहार्य 'विवशता...'
आगे पीछे बंद रास्ते,
..अंधे मोड..
वक्र..
अबूझ..
असमाप्त...!
बस, यहाँ से कोई रस्ता आगे नहीं जाता...!

Saturday, July 21, 2012

'मन मिटटी होता जा रहा है..
रोज-रोज एक ही सन्देश|
जैसे शब्दों को किसी ढलान से 
धकियाते जा रहे तुम...,
..... और मैं......
रोकती-टोकती
दौड़ती-हांफती
उन्ही-उन्ही इबारतों में.....
लौट-लौटकर जाना चाहती हूँ....
उन्ही-उन्ही दृश्यों में दिखना चाहती हूँ...
जहाँ से तुम भागने का रस्ता ढूंढते रहते हो...!'

Thursday, July 19, 2012


साटिन के गाउन की  डोरियों को कमर से मुक्त कर
 'बीबीजी' इंटरनेट पर बैठती हैं|
चाय लिए 'सरसतिया ' खड़ी है,
खड़ी- खड़ी ताक रही इशारे का इंतज़ार करती है..
सोच रही कि अच्छा हुआ इंटरनेट ने साँसों की फिजूलखर्ची बचा ली..
पहले तो 'बीबीजी' फोन ही पे होती थीं..
अब पूरमपूर थ्रिल..!!!
बटन दबाव बे-आवाज़  बतियाओ.
'बीबीजी को देख याद आया ' नया मुल्ला खूब प्याज खाता है'
ये उसने नहीं कहा, सदियों से ये उक्ति चली आ रही है..|

पर इधर ई-मेल , फेसबुक का गट्ठर पहली बार जाना...
'बीबीजी' ने तो ये भी बताया था कि
'नेट 'के यातायात में भी ऊब दाखिल हो चुकी है,
जी हाँ..... ऊब....!
या एक संक्रामक 'रोग'...?
छी:.. सरसतिया ने खुद को कोसा मन में..
'दो कप पानी क्या उबाल लिए कि लगी सर चढ़ने,..
 देख सुन के टांग अड़ा, गवांर कहीं की...!'

अप टू डेट तो बीबीजी हैं री...
बिजी जो रहती हैं.. बड़े-बड़े काम, लिखना -पढ़ना...
दफ्तर जाना, इन्टरनेट...
वो कोई सरसतिया थोड़ेई हैं, जो दिनरात अपनी
मरगिल्ली बेटियों के 'भकोसने' का इंतजाम करती रहें.
या अपने पियक्कड रिक्श्वान मरद के हाथो पिटती रहे...
'राम..राम...'

.... बीबीजी ने न तो शादी की
न बच्चे, न गू-मूत...न पियक्कड मरद...
न गुलामी , न सलामी... न मारपीट.....
छुट्टम - छुट्टा आज़ाद...!
ठकुरानी ... महारानी .. बीबीजी रानी.....!!

'फिर कईसन चेहरा रे बीबीजी का....
कभी हैवानियत.... कभी नाखुशी...कभी असंतुष्टि.... कभी रोमांस..
....... और कभी ऊब'..
'.... जी.... हाँ.... ऊब......'!
सरसतिया ने एक बार फिर सोचा और चाय रख चली गयी......!

Tuesday, July 17, 2012


जाने क्यूँ रिश्तों में मुझे दो टूक सफाई पसंद है...
या इधर या उधर....
बीच में कुछ नही |
बीच होने की 'यातना' कुछ नहीं|

वक्त और मेरे बीच साल भर की  अवधी में घट चुका
इक मीलों लंबा इतिहास है..
पर इन सब से परे
एक छोटे से क्षण में, वक्त ने जैसे
सब देख लिया /साफ़ देख लिया..
और दिखा दिया....
सबसे अलग, अकेला , अपना स्वतंत्र मनोनीत क्षण|
इतने सघन अँधेरे में भी  क्षण-बिंदु से आगे को
खिचती जाती  दिशा -रेख भी स्पष्ट दिखाया वक्त ने..

अब लगा कि जा सकुंगी
मन और तन की हिंसाओं से परे-
-बेबाक.. बेलाग....और अकेली!!!!!

Monday, July 16, 2012


नए दर्दों के साथ उघड आते हैं पुराने दर्द....
हुंह....! दर्द को दावा भी तो नहीं कर सकते कि
तू खूब जाना  पहचाना लगता है...!
लगता है, जैसे हरेक दर्द को इक नया नाम चाहिए...
... और रोज ही तो अंतड़ियों का एक हिस्सा उधड़ता जाता है....
... दर्द से....!

सुनो, एक बात बताओगे.....?
क्या हँसते रहने से...
झेलने से... सहने से..
मन के कोने में दफना देने से..
या ऐसे ही तमाम पट्टे लगाए रहने से..
क्या दर्द पतले पड़ जाते हैं??

Friday, July 13, 2012


अरे सुनो, कल ही तुमने एक बीती बात का गुब्बारा
हाथ में पकडाया था....
जो किसी खोखल में भरी हवा के बल पर उड़ता है,
हाथ तो जैसे खाली थे वैसे ही हैं.
हाँ! पर मन मैला हो गया है...
धरती से आँखों का फासला जो बढ़ गया है....
'दर्द का चीथड़ा मेरे गुमान की  पट्टी  पर फडफडा रहा है आज भी...'
बताओ ना, किस कांटे को कहूँ कि ,
-तू ज्यादा चुभ रहा है......!

Tuesday, July 10, 2012


पार्क से निकलते वक्त, अचानक उस कुत्ते की  दुम पांव के नीचे आ गयी,
मैं चीखी, "ओह आई ऍम सॉरी..."
कुत्ते ने कहा,"इट्स ओ के..., डोन्ट फील सॉरी.
मैं ही गलत जगह बैठा था."
मैंने कहा,"अरे, तुमने काटा नहीं? शराफत भी दिखाई,
क्या तुम थोड़े कम कुत्ते हो?"
कुत्ता मुस्काया, बोला.."ये तो बड़ा एब्सर्ड स्टेटमेंट है मोहतरमा...
कुत्ते कमज़ोर होते हैं, ताकतवर होते है, बीमार होते हैं, स्वस्थ होते हैं,
सुंदर और असुंदर होते हैं....
पर कुत्तेपन में फर्क नहीं होता..
-फर्क तो आदमियों में आदमियत की होती है..
हमारे पास च्वाइस नहीं , सिर्फ  डिसीजन है...!
हमारा भूत वर्तमान भविष्य सब एक जैसा ही है...
'व्हिच इस पॉसिबल, इस एक्चुअल',
इंसानों कि एक्चुअलिटी  पोसिबिलिटी नहीं होती...
आप बदल सकते हैं कल भी आज भी...
आप में कम इंसानियत भी होती है ज़्यादा भी....
'और जानती हैं फैक्ट क्या है,
आपने अपनी यात्रा पशु से शुरू की थी,
और उस यात्रा का एक्सपीरिएंस आपके साथ होता है...
हम कल भी पशु थे आज भी है कल भी रहेंगे...!
एंड यू मस्ट नो कि, पशु डाइमेंशनल रस्ते में होते हैं,
हमारे कुत्तेपन की  कोई च्वाइस नहीं , जितने कि
इंसानों में, इंसान होना और बने रहना'
.... गुड बाई...."....
और धूल झाडकर वो कुत्ता चला गया....
'हाँ! मेरी ही आँखों से....'!

Monday, July 9, 2012


वह लौटाने आया था राशन, उस दंगे के बाद
जो दिए गए थे बस्ती के कुछ घरों में,जिनके
या तो घर जले थे, या कोई अपना  मरा था...

उसने कलेक्टर से यही कहा कि
-'उन फसादों में सबके बच्चे मरे, मेरे क्यूँ नहीं...
क्यूँ जिंदा रह गए सब.. के सब ?'
ये बात कह्ते हुए शब्द लड़खड़ा गए उसके..
ज़ुबान धोखा दे रहीथी ,
उस सिसकी को उसने भरसक
अपने होठो के कोटर में भीचनी चाही
.. पर फूट पड़ा..
हाथ सर से बंधे रहे और गाल गीले होते गए...
सुबकियां गले में ठेली जा रहीं थीं
धौंकनी सी छाती और हिलता शरीर.
शर्म छिपा सकने का भी होश नहीं था.

"'सात लोगों के परिवार में गुज़ारा कैसे होगा?
मुझे खैरात नहीं, कोई काम दे दो साहेब."
लडखडाती आवाज़ में इतना ही बस निकला..

कलेक्टर सोच में पड़ गया
सामने फोड़े से फूटते इस अजीब आदमी को देखकर.
"इतना लहीम-शहीम, इतना खुद्दार,
और ऐसे फफक फफक कर......
....... आखिर क्यूँ...".....?

"गुस्ताखी माफ हो साहेब"....
यही कहते हुए वह उठा, उबाल ठंडाने  पर...
और निकल गया कमरे के बाहर, राशन का बण्डल वहीँ छोड़.
'पता नहीं आज आग कैसे जलेगी ,
 बुरादा भी खत्म हो गया अंगीठी का..!'


(ये कोई काल्पनिक कविता नहीं,  सत्य घटना का एक अंश है.. बस ज्यों का त्यों रखा गया सामने आपके)

Sunday, July 8, 2012


- बच्चों आज तुम्हारे लिए, रश्मि दीदी की तरफ से.... :)

' सिन सिनाती बुबला बू....
मेले से लाया बिट्टू...
ढम -ढम ढोलक बाजा बीन,
गाँधी जी के बंदर तीन.
सुनकर भालू की खड़ताल,
नीलू-पीलू हैं बेहाल.
उनका घर है टिम्बकटू
सिन् सिनाती बुबला बू.....'

आओ बच्चों, रश्मि दीदी फिर आ गयीं आपके लिए कुछ लेकर.....

"सोन चिरैया चूं-चूं-चूं...
मोती पिल्ला कुं-कुं-कुं...
सोनू तोता रटता है,
बन्दर खों-खों करता है .
बिल्ली बोलो म्याऊ-म्यायुं ,
ढूध पिलाओ तो मैं आऊ,
मेढक बोला टर्र-टर्र-टर्र,
नहीं किसी से मुझको डर.....!"

तो बच्चों, नहीं किसी से-
.
.
"मुझको डर............"

'ओ.के., शाबाश!'
बच्चे मन के सच्चे'.......... कभी पढ़ना बच्चों के चेहरे, उनकी मासूमियत... कितनी तरलता होती है उनके चेहरे में एक लिक्विडिटी...! हवा के झोंके के समान बदलता चेहरा...मासूमों के चेहरे कठोर नहीं होते... कठोर चेहरे मुर्दों के होते हैं.. जिंदा के नहीं.. या फिर पत्थर दिलों के... जिनके लिए सब फिक्स्ड हो गया है...तो चेहरा पथरीला हो गया...! मैं नहीं कहती कि चेहरे मत बदलो.. बदलो, खूब बदलो.. बच्चों के सामान लिक्विडिटी आने दो...पर, चेहरे को पत्थर ना बनने दो... असली चेहरे को रखो सामने...असली चेहरे में तरलता होगी , जो चांदनी रात में कुछ और होगा.. अँधेरी रात में कुछ और.. सुख में कुछ और दुःख में कुछ और...यही संवेदनशीलता है...! इर्ष्य राग- द्वेष रखनेवाले व्यक्ति संवेदनशील नहीं होते...!
"ह्म्म्म..... जिंदगी में एक परिवर्तन ही ऐसी चीज़ है जो परिवर्तित नहीं होती...!"

बच्चों आज एक क्लासिकल गाना सुनो.. शायेद हमने.. आपने.. हमारे माँ.. बाप ने भी इसे सुना हो..... बिलकुल बिहारी छाप लिए.... :)

"अटकन बटकन, दही -चटाकन
बार फूले बरेला फूले..
सावन मास करेला फूले.
जा बेटी गंगा
गंगा से कसैली ला
कच्चे कच्चे नेउर के, दे पक्के पक्के तू खा...."

(नेउर= नेवला)
:)

Thursday, July 5, 2012


(अब लौटने का कोई रास्ता ना रहा..
........जीवन... /भूलभुलैया../ चक्रव्यूह..........!)

ना कनीज़ रास्ता दिखा रही थी कोई
ना कोई ख्वाजासरा बिछा रहा था कालीन
ना दरवाज़े खुल रहे थे अपने आप
ना मुस्कुराते बंदे खड़े थे सर झुकाए....

काठ के घोड़े पर चढ के उड़ तो रहा था वह
बादलों पर...
पर.. नीचे उतरने की कला भूल गया .
और 'खुल जा सिम सिम 'का मंत्र भी भूल गया वह
......अचानक!!!!!!

"चक्रव्यूह की बात सुनते सुनते
तुम बीच में क्यूँ सो गयीं थीं सुभद्रा?"

Tuesday, July 3, 2012

मैं लौट रही थी...
अपनी सधी हुई लडखडाहटों  के  साथ...
चुप- चाप, निशब्द ..!
खंदकों को पार करती हुई 
ऊँचे नीचे पत्थरों के ढोकों पे पांव रखती हुई ..
न हर्ष न विषाद न शोक न क्रोध...!
कुछ वैसे ही जैसे..
शिव लौट रहे थे सती का शव काँधे पे डाले.
मेरे कंधे पर भी इक लाश थी...
हाँ ....ये मेरी ही लाश थी!!!

Friday, June 29, 2012

वो आज भी बैठी थी अपनी उलझी लटें बिखराए
गोद में नन्हे को बिठाये ,खोयी हुई..
घर-बार दरोबाम से उकताई हुई...
देख मुझे चौंक पड़ी....
आ.. अ.. आप...?
किसलिए आये हैं....?
क .. कैसे मुझे ढूँढा..?
ज .. जाइए जाइये...
आते होंगे वो ऑफिस से...
अजनबी को देख घबराएंगे 
जाने क्या सोचेंगे... मुझपे झुंझलाएंगे !

मैं चकित..
कुछ विस्मित...
अपना सर झुकाए हुए
सोचा , मैं तो बस अतीत का साया..
रुका झिझका कुछ सकुचाया..कि
वक्त ने सवाल पूछ ही लिया
-क्या तेरे शौक की वाराफ्ता मिजाजी है वही.. पहले सी..?
..............
..........
वक्त दम साधे देख रहा था मुझे कि,
रिसते छालों को एक बार और देखा मैंने...
मुस्कुराया...
और खुद को धकियाते हुए कहा...
'चल, आगे बढ़...'
!!!!

Thursday, June 28, 2012


इनायत , कि तुमने दर्दे दिल दिया है
तुम्ही को देते जायेंगे दुआएं...
भूल जातें है हर इक शै दुनिया की
बता, कि तेरी मुहब्बत कैसे भुलाएं....?


(उफ्फ्फ.. राह भी देखती रही थी आने का.. हज़ार शिकायतें लिए.. कि इस बार आओ तो ये कहूँ .. ये कहूँ.. वो कहूँ और वो कहूँ...! कितना रुलाया.. कितना सताया.. कितना जलाया... सोचा कि आओगे तो बोलूंगी भी नहीं..... !
तुम आ भी गए.. और मैं नाचने लगी.. भूल गयी सारी बातें.. शिकायतें... जो हुआ सो हुआ.. क्या छेड़ूँ उन बातों को इस मंगल घडी में....नाचने गाने कि घडी में...! रौशनी ज़रा सी मिली तुम्हारी मन रौशन हो गया....

.."होता है ऐसा..")

मुझे लौटा दो मेरा वो चेहरा खोया हुआ....
होठ रख मैं उन होंठों पे सो जाउंगी
जिनको चूमे हुए बरसो बीत गए!
रूह में सुर्खिये- लब घुल के उतर जायेगी
सुबह अनफास के निकहत में बस जायेगी
पांव उठेंगे उसी शहर की जानिब 
कि जहाँ मेरे दिल ने धडकना सीखा था...!
लौटा दो,
इसके पहले कि मिले वक्त को हुक्मे-रफ़्तार...
लौटा दो वो मेरा चेहरा खोया हुआ .....!

Wednesday, June 27, 2012

नहीं निकालती मैं चलते हुए तलवों से कांटे चुन चुन कर
.....मंज़ूर नहीं चलना अब यूँ बचकर, झुककर , रूककर...!

खाओगे जिस दिन सूखी  रोटी ही परिश्रम कर - थककर
तृप्ति देने आउंगी मैं ,बन तेरे लोटे का ठंडा जल....!

Saturday, June 2, 2012

आप जानते हैं भगवन शिव और विष्णु के पुत्र को? चौंक गए ना? हाँ हम भी ऐसे ही चौंके थे जब ये सुना ... बात ये है कि विष्णु ने जब मोहिनी का रूप धरा था तो शिव जी ने इनका वरण किया.. इनकी एक संतान भी हुई "अयप्पा स्वामी".. इन्हें हम हरी-हर पुत्र भी कहते हैं...!
हाँ... सिर्फ कुंती ने ही अपनी संतान कर्ण को प्रवाहित नहीं किया था... इन्होने भी( शिव जी- विष्णु जी) अपनी संतान अयप्पा को नदी में प्रवाहित कर दिया... ! राजशेखर नामक राजा को ये संतान मिली... जिनका पालनपोषण अपने पुत्र की तरह किया.. बाद में इनकी भी एक संतान हुई थी...! जब राजशेखर को अयप्पा मिले थे तब इनके गले में दिव्य मणि थी जिनकी वजह से इनका एक नाम "मणि-कंटन" भी है...!
शास्त्र- शस्त्र में पारंगत अयप्पा अपनी माता को प्रिये ना थे... राजतिलक के समय रानी ने इनके कठिन काम यानी शेरनी का दूध लाने हेतु वन में भेज दिया ताकि इनके पुत्र को राज मिले... (अकेली कैकेयी ही ना थीं ऐसी....) जहाँ उन्होंने महिषासुर कि बहन महिषी का वध किया और शिव कृपा से शेरनी का दुग्ध ला सौंप दिया.. छल की बात पता चलने से महल छोड़ वन में चले गए...!
राजशेखर के बुलाने पर भी वापिस ना आये... और स्वर्ग कि और रुख किया...
उनके नाम एक मंदिर का निर्माण हुआ केरेला के सबरीमाल में . जहाँ मूर्ती कि स्थापना स्वयं परशुराम ने किया.. सबरीमाल आज दक्षिण के प्रसिद्द तीर्थों में है...!
इन सब बातों में मज़े कि बात.. हम प्राय: अयप्पा स्वामी के मंदिर में जाते रहे हैं पिछले पांच वर्षों से.. और स्टोरी आज पता चली.. कि अयप्पा स्वामी कौन थे...!
बस मांगने को अपने हाथ फैलाते रहे
सिर्फ अपनों की खैरियत ही मनाते रहे
भरती गयीं जेबें, रीतते गए मन..!
फिर दुश्मन फायेदा उठाएगा
हमारी गनों का रेंज आधा रह जायेगा
हमारे जहाज पृथ्वी से उठने में देर लगाएंगे
हम पूरी ताकत से फिर कैसे लड़ पाएंगे?
जब शंखनाद होगा 'उस युद्ध 'का.......!