Sunday, July 7, 2013

अबके बरस भेज भईया को बाबुल

बीते रे जुग कोई चिट्ठिया ना  पाती
.............ना कोई नैहर से आये...!

इन दो सालों में हमे  पहली बार ऐसा लगा कि हमारा बचपन खो गया है..... संगी साथी , खेल-खिलोने सब बीते दिनों की बातें लगने लगीं... घर दूर दूर होता जा रहा है. दो सालों में हम डाल्टनगंज (मायका) सिर्फ शादी ब्याह में जा रहे हैं... वहाँ दस- पन्द्रह दिनों की मौज मस्ती होती है, नाच गाने , उत्सव-उत्सव-उत्सव... खूब काम होते हैं और  सब के सब बिजी.... ना तो अच्छे से माँ- चाची से बात-चीत हो पायी ना भाई बहनों के साथ गप-शप, ना सहेलियों दोस्तों का जमावड़ा रहा ना छत में धमाचौकड़ी हो पायी....  लड़ना झगडना , रूठना मनाना इन सब के बिना कुछ खाली खाली सा  लगा...
....बैरन जवानी ने छीने  खिलौने
और मेरी गुडिया चुराई.....

एक बार मन  हो रहा कि हम फुर्सत में घर जाएँ.. खूब बातें करें सबसे... अपनी पसंद की चीज़ें खाए... वहाँ की गलियों में  घूमे....  हमउम्र भाई- बहनों दोस्तों के साथ खेलें... अपने लगाये पौधों को सींचे... टायर के झूलों में झूलें, पड़ोस के बगीचे के अमरुद चुराए, उनके फूल तोड़ कर भाग जाएँ... अपने कमरे की सफाई करें... छुपाई चीज़ों को फिर से खोजें... सबको दिखाएँ.. पुराने ग्रीटिंग कार्ड और खतों को निकाल कर फिर से पढ़े... फिर से वही वही शरारतों को दुहरायें जिनसे खूब हमारी क्लास ली जाती थी... और फिर से मम्मी अपने हाथों से रोटियों के कौर मेरे मुह में डालती जब हम असाइनमेंट पूरा कर रहे होते...
घर जाना चाहते हैं....!

"अबके बरस भेज भईया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाये...."

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