Thursday, April 5, 2012

सखियों, आज ज़रा पुरुषों को याद करिए.. अपने दादा-नाना, पिता, पति भाइयों बेटों को, गुरुजनों के चेहरे, मित्रों के.... पड़ोसियों और राहगीरों के..... खोमचे वालों के मजदूरों  के.... संघर्षों  में जूझते लोगों के....!
हारते लोगों के जीतते लोगों के.....!
नहीं लगे न सारे चेहरे क्रूर.... कुछ तो छल कपट से परे... निष्पाप से लगे होंगे न... ?
ये बुरे तभी लगते हैं जब आपकी छाती पे खड़े होते... छलते हैं.... इज्ज़त लूटते  हैं... धोखा देते हैं... पर सब तो ऐसे नहीं न...? गौर करिए उन पर भी... जो तिल तिल मर रहे हैं ... घुट रहे हैं.. विपरीत हालत से जूझ रहे हैं...और हर माँ- बेटी- बहन को सम्मान देते  हैं..!
कभी देखिये पुरुषों से छ ली महिलाओं को कितनी महिलाए सहारा देतीं हैं? या की उन्हें मिलता है तिरस्कार?
ये संवेदनहीनता है..... स्त्रियों की भरमार के बावजूद स्त्री आगे बढ़ के हाथ  नहीं थामती, अकेली रह जाती हैं..(प्राय:)!
पुरूषों की कविताओं में वर्णन  नख से शिख तक आपके सौंदर्य का मिलेगा, हमारी कविताओं में उनके भेड़िये और जानवर होने के सन्देश मिलेंगे...!(है न?)

'स्त्री ही स्त्री की पीड़ा समझती है'... बचपन में सुना था....' आज नहीं मानती मैं....!'
'स्त्री-स्त्री की दुश्मन होती है'.. जब भी सुना करती थी विरोध करती थी, चीखती थी और भाषण दे डालती थी.." आज चुप हूँ!"
(जानती हूँ ऐसा कह स्त्रियों से बैर मोलना है)
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तो आज आप मूल्यांकन करिए अन्य स्त्री के साथ अपना व्यवहार.... मन झूट न बोलेगा!

"अनुपम कृति है इश्वर की स्त्री... मानती तो हैं न... तो बस अब ज़हर न निकालिए .. उसे अमृत करिए, इतनी शक्ति है आपमें, जानती तो हैं न..!!!"

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