Wednesday, September 5, 2012

मन फिर हल्का हो आया है.... रुई जैसा...!
हाँ, रुई है सो हलकी लगे पर धुनक दो तो इतनी... इत ........नी..............
...कि कहाँ रखें......|
.. कुछ कुछ ऐसा ही आवेग....!
इतना उत्तेजन बरसों बाद जाना....
और इसे मैं अगर समझाना चाहूँ तुम्हे....
तो गले में एक गाँठ सी अड जाती है...
जैसे आगे बोलना पड़ा तो शर्मसारी की चादर उघड जायेगी....|
.. और मैं भीख मांगती लगूंगी.....!!

"मैं..... हाँ ... मैं.... मेरा कोई मन या मेरी इच्छा नहीं.....?"
ये शब्द भीतर ही भीतर बिलबिला जाते हैं.....
और उचारे नहीं जाते....|

फिर अपना चेहरा देखती हूँ मिटटी सा वर्णहीन.....
...और धुआंसी आँखें....!

मन में अब कोई कच्चापन नहीं.....
सालों से बंजर पसरापन है...और...
होंठो पे एक सुबकी उचकती है.......!

"लो, मुह फेर के बैठ गयी मैं..........."

1 comment:

  1. सुन्दर रचना.. बेहतरीन अभिव्यक्ति :)

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