Tuesday, October 2, 2012

अधर सूखे , किन्तु देखा सामने
सब दिशाओं में मिला 'मरुथल' असीम........
प्रेम ढूंढा तो मिले 'निर्गुण' पुजारी-
साध्य की ही साधना तो थी ससीम.....!
फिर कहो, यह नयन कैसे बरस लें?
जब विरह की ज्वाला जलती ही नहीं......
क्या करूँ के अब प्यास लगती ही नहीं...................!

साधना की राह में मैं थी बटोही,
देवता के चरण में चलकर गयी थी.....
पर ह्रदय की मान्यता ही थी अधूरी-
अर्चना के फूल सूखे ले गयी थी;
'मरुथलों ' की साधना भी स्वप्न होती,
स्वप्न की हर बात बनती ही नहीं....|
"क्या करूँ, के अब प्यास लगती ही नहीं......"

देवता के पास आई थी कभी,

आँख तक भी मिला मैं पायी ना थी...
थक गयी माथा झुकाकर सामने,
दर्द भी अपना सुना पायी ना थी ;
जबकि मंदिर के पुजारी ने कहा,
"देवता की नींद खुलती ही नहीं|"

क्या करूँ के अब प्यास लगती ही नहीं.............!

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