Thursday, January 7, 2016

दुनिया में प्यार की एक है बोली

संसार की बड़ी से बड़ी भाषा हर विधा के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती। अंग्रेजी या उर्दू में घनाक्षरी लिखें तो वो खूबसूरती नहीं आएगी जो ब्रजभाषा में आएगी। ग़ज़ल के लिए हिंदी साहित्य ज़रा धीमा पड़ जाता है वहीँ उर्दू में बात कुछ और होती है। उर्दू की मिठास भले चाशनी जैसे मुँह में घुली हो लेकिन उर्दू शहरों में पली बढ़ी है। जबकि हिंदी और इसकी उपभाषाएं या बोलियाँ गांवों में जवान हुई हैं। खेत की मेढ़, अमराई, पनघट , नदियां, तालाब, बड़, पीपल ,  लहलहाती फसलों का जो सौंदर्य हिंदी में आया वह शायद उर्दू में फीका रहा है।

'विधिना करो देह को हमरी
तोहरे घर की देहरी
आवत जात तोरे चरण के धूरा
लगत जात हर बेरी....'

यह भारतीय नारी ही अपने प्रियतम से ऐसा कह सकती है। बोलियों में लोकगीत किसी बड़े साहित्यकार के नहीं रचे होते। जाने क्या सोचकर लिखते हैं के अनपढ़ गांव वाले रचनाकार की अभिव्यक्ति का चमत्कार भी दंग कर देता है....

तैने ले लई प्राण अहिरिया
तिरछी मार नज़रिया
एक पुरा एक ही बखरी एक ही चलत डगरिया
एकई उठन एक ही बैठन, एकइ परत सेजरिया
अब तो छुरी तुम्हारे हाथन, घीच करे गिरधरिया....'

[अहिरन (राधा) ने तिरछी नज़र मार कर प्राण ले लिए। एक गाँव एक मोहल्ला और एक ही रास्ता है। साथ उठना बैठना और सेज भी एक है। अब छुरी तुम्हारे हाथ में है और हमने गर्दन आगे कर दी है।]

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