Friday, June 3, 2011

दिल के आईने में उभरा प्रतिबिम्ब....


"दिल सोचने को बारहा मजबूर हुआ है, भीड़ का हर चेहरा क्यूँ मुझसे दूर हुआ है"
एक समय से सुबह उठने पर ये ख्याल आता है की चिर निद्रा क्यूँ नहीं आई? मेरे बाद शायद दुनिया ही सुधर जाए.

मैं तो अनामे ढंग से दुनिया के जंगल में उग आई,. तपती धुप से बचने के लिए लोगों ने मेरी छाओं के तले विश्राम किया और दो चार कुल्हाड़िया भी मार के चले गए. मैं कल रहूँ या न रहूँ, मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद रहे....अब तो तन और मन दोनों ही थक गए हैं, मन की थकन ज्यादा खतरनाक होती है.
मैं तो सबके लिए एक खाज की तरह फालतू और निरर्थक व्यक्ति नहीं वस्तु हूँ. बाहर से जो भी मेरा सम्मान हो.... लेकिन सूर्य की जिन बाल किरणों का स्पर्श पा कर कमल खिलता है और सूर्य के डूबते ही जो मुंद जाता है , वे ही उसे झुलसा डालती हैं....जब..... जब कीचड में उसकी जड़ें कट जाती हैं. यह राम चरित मानस में कहीं तुलसीदास ने लिखा है, "सो जड़ विहीन मैं".....

ज़िन्दगी आंसुओं में बह गयी,कोई किनारा न मिला....
कह सकूँ जिसे अपना, वो सहारा न मिला....

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