Friday, November 25, 2011

तुम जानते हो......? तुम्हारा स्वर मेरे स्वर से मिल गया है. तुम्हारे बावजूद तुम समस्वर हो आते हो मेरे साथ.. कभी कभार....!! हो सकता है कभी कभार.... क्यूंकि ये मिलन तभी सम्भव है जब तुम स्वयं को भूलते हो... और उस क्षण तुम पाते हो कि तुम्हारा स्थान खाली है... भले ही क्षणिक हो ये पर तुमने सत्य देख लिया है... जैसे बांस कि खोखली बांसुरी और उसके भीतर से बह रहे संगीत का चमत्कार देख लिया है...! 
ये आकाश कि भांति एक एहसास है समस्वर होने के बाद भी लगता है वह नहीं है.. तुम भयभीत होते हो घबराते हो.. होता है ऐसा...!!! 

एक बात और.. अब मेरी उपस्थिति भी अनुपस्थित हो रही है..मैं हूँ भी नहीं भी...!!!
तुम जितने सजग हो रहे हो.. समर्थ हो रहे हो.. सफल हो रहे हो.. मैं शुन्य हो रही!!
बस एक स्वाद एक आभास हूँ.....!!

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