Monday, March 12, 2012

सबकुछ वही तो है पहले जैसा... सिर्फ रूप.. रंग.. ढंग... शैलियाँ बदल गयीं प्रेम की ... ! पर है तो शाश्वत ही.. जैसे आत्मा ने वस्त्र बदले..! जैसे नदी सागर में गयी... सागर किरणों से चढ़ कर मेघ बना...मेघ फिर बरसा नदी में और नदी सागर में!!
एक बूँद भी न खोयी ... जल उतना ही रहा जितना  सदा था ..!
मेरा प्रेम भी वैसा ही  रहा न..! कल तुम्हारे साथ मैं ही तो नाची थी वृन्दावन में ललिता के रूप में ...! मेरी वीणा में राग तो तुम्हारा ही बजा था जब मैं मीरा थी...! याद तो है न...???
"देखो, कृष्ण! प्रेम की न कोई विधि है न विधान"....! 
"तनिक सी दूरी से काहे घबराए जाते हो"...?
"अरे! मैं तो वही हूँ जिसने 'पांच हज़ार साल के फासले' से प्रेम किया था"......!!!!

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