Tuesday, March 20, 2012

आज देखना एक दिये को ध्यान से... देखना उसकी लौ..उसकी रौशनी,.. उसकी बाती, उसका तेल.... और उसकी जलन!!!!!!
देखना कैसे बाती.. तेल को जलाती है... सारे तेल को जला खुद जल जाती है...! बाती को लपट जलाती है.. और भभक के  अंत में बुझ जाती है... सारी  आग सारी जलन खतम... खेल खतम!!!

ह्म्म्म.....!!!
 पहली बात:  ये तर्क को दिखा रही है.. तर्क के कैसे इनकार होते हैं.. एक पर एक चीज़ इनकार  भरी.. 'ये नहीं..ये भी नहीं.. ये भी नहीं.. वो भी नहीं...' अंतत: सारे इनकार के बाद तर्क खुद मर जाता है.. अब कुछ नहीं इनकार को!!

दूसरी बात:  विश्वास को दिखाती है..!! यहाँ स्वीकारोक्ति सी दिखती है...विश्वास कि स्वीकृति .. ' ये सही.. हाँ, ये भी सही... ये भी और वो भी...'  सब स्वीकार है..! अब विश्वास की भी ज़रूरत नहीं...!

अब सोचिये जहाँ तर्क और विश्वास दोनों गिर गए तब क्या बचा?????
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.क्या यहाँ प्रेम है?????

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