Saturday, March 24, 2012

एक आदमी किसी अपरिचित नगर में पहुँचता है.. जहाँ की न तो भाषा आती है उसे, न चाल चलन की जानकारी..! भूखे प्यासे भटकते हुए एक  महल के द्वार पे पहुचता है.. जहाँ संभवत: कोई भोज चल रहा है सोच दाखिल होता है... सभी बैठें है भोजन पर सो उसने भी बैठ के तरह तरह के पकवान खाए... वो एक होटल था.. !खाने के बाद जब बैरा बिल ले के आया तो उसने सोचा कि शायेद इस महल के राजा ने धन्यवाद पत्र भिजवाया है.. बिल को जेब में रख वह प्रत्युत्तर में झुक झुक के आभार प्रकट करता है कि 'मुझ जैसे अजनबी का सम्राट ने इतना स्वागत किया.. अपने देश जा के खूब प्रशंसा करुंगा ..!' बैरा कुछ न समझा तो उसे पकड़ के मैनेजर के पास ले गया... आदमी और प्रसन्न कि लगता है प्रतिनिधि मेरे धन्यवाद से  खुश हो  बड़े अधिकारी के पास ले आया. खूब खरी खोटी सुनने के बाद भी वह धन्यवाद दिये जा रहा है.
अब उसे अदालत में ला खड़ा किया गया तो उसकी खुशी  और बढ  गयी उसने सोचा कि अब वह सम्राट के पास आया गया है.. और वहाँ भी उसने देश कि प्रशंसा  में कसीदे काढे... कि वह अभिभूत है यहाँ आ के.. उसकी खुशी का ठिकाना नहीं...!  जज ने इसे चालबाज ठहरा के गधे पर उल्टा बिठा नगर घूमाने का आदेश दिया...!
साथ में एक  तकथी भी लटका दी गयी कि"ये आदमी चालबाज़ है...जिसके सामने से ये गुज़रे इसे भरपूर गालियाँ दो"..
अब तो उस आदमी के पैर न थे ज़मीन पर उसे लगा कि उसकी शोभा यात्रा निकाली जा रही है एवं लोग इसकी प्रशंसा में गीत गा रहे हैं..! वह गदगद सपने बुनने में  व्यस्त कि देश जाके अपनी कहानी सुनाएगा.. अगर कोई देखनेवाला भी रहता तो बड़ा मज़ा आता...!
अचानक उसके देश का एक परिचित दीखता है वह चिल्लाता है." देख! मेरा कितना स्वागत हो रहा है.."
वह आदमी भाग जाता है कि उसे पता है क्या हो रहा है... और ये मूर्ख यही कहता है..."उफ्फ्फ कैसे मुझसे जल के भागा वह अभागा.."!!!

(अहंकार में डूबे लोग ऐसे ही भ्रांतियों  के शिकार होते हैं. जिनका न जीवन के तथ्य से सम्बन्ध है न जीवन की भाषा मालूम... कोई ताल मेल नहीं जीने और जिंदा रहने का ....!)

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