Wednesday, December 7, 2011

इधर ख़ामोशी, उधर ख़ामोशी, गुफ्तगू फिर भी हो रही  है,
वो सुन रहे हैं ब-चश्म-ए खंदा, बचश्मे- नम हम सुना रहे हैं!
जो मुस्कराहट से उनकी उठती है नगमाए बेखुदी कि मौजें,
वही तो बनते हैं शेर मेरे जिन्हें वो खुद गुनगुना रहे हैं!!!!!

No comments:

Post a Comment