Wednesday, October 23, 2013

जहाँ आग रहेगी ,धुंआ वहीँ उठेगा....!!
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-ना.. ना .. नहीं... धुंआ आग का हिस्सा नहीं है. अगर लकड़ी मे पानी ना हो तो धुंआ उठ ही नहीं सकता . धुँआ उठता है आर्द्रता के कारण , पानी के कारण, गीलेपन की वजह से. 
हाँ जब तक मन गीला है इच्छाओं से... कल्पनाओं से... तकलीफदेह धुँआ ही उठेगा.
और कब तक ऐसी धुन्धुआती जिंदगी चलेगी? आग भी हमी जलाते हैं रौशनी की तलाश मे, पर धुंआ अँधेरे से भी बदतर कर डालता है.. अपनी आँखे भी आंसुओं से भरती हैं और दूसरों की भी. रौशनी तो दिखती नहीं और आँख मिचमिचाने के सिवा रह क्या जाता हैं.

-मन के आपाधापी और इच्छा से जब हम मुक्त होंगे उसी दिन प्रज्ज्वलित और धूम्ररहित शिखा उठेगी.

(मुहूर्तं ज्वलितम श्रेय:
जी करता है एक पल मे ही भभककर जल जाऊं... जीवन को लम्बाने से बेहतर होगा उसे प्रज्ज्वलित करना.. हाँ क्षण मे...! )

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