Friday, January 20, 2012

अजीब उपद्रवी हो भीतर से तुम!
तुम्हारी सारी व्यवस्था ...तार तम्य.. भीतरी संगीत.. स्वर... मेलोडी सब अस्त व्यस्त से हैं...!!!! दिखावा...! छलावा!!
तुम्हारे भीतर आग  जलती है और  सर्दी दिखाते हो... क्रोध उबलता है तो मुस्कुराते हो...भीतर वासना पड़ी है और दिखा रहे हो की सन्यासी हो?
भेडिये कहीं के....!!!!!

गवां दिए वो अवसर तुने जहाँ मैं महा- संगीत पैदा कर रही थी...!!!!
मिथ्या रोगी....!

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