Wednesday, January 18, 2012

खंड चित्त

तुमसे जो तरंगें निकलती थीं और सारी प्रकृति से उन तरंगों का जो तालमेल था वह टूट सा गया है....जो इनर हार्मोनी थीं वह भी टूट गयीं है... तुमने अपने हाथों से ही सब तालमेल तोड़ डाले हैं.. और अकेली खड़ी हो गयी हो आज -दुश्मन की तरह! तुम्हारा हठ ये कहता है की भावपूर्ण होना मूर्खता है...जबकि तुम ये जानती हो की भावहीन होना मूर्खता है..!!
न बादलों से दोस्ती न नदियों से प्रेम......!

"खंड खंड चित्त, स्व-विरोध में बंटा व्यक्तित्व ..डिस इंटिग्रेटेड व्यक्तित्व ...."

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