Wednesday, January 11, 2012

मुझे परतंत्रता में जिलाने की तुम्हारी कोशिश ऐसे ही है जैसे:
"तुम आकाश को  डिब्बों में बंद करना चाहो...
....किरणों को  संदूकों में भरना चाहो...
...........खुशबू को मुट्ठियों में भीचो...."
"यह नहीं हो सकता....."
अस्वाभाविक है....!!! .. मगर..
तुम ऐसा ही करते हो....
और प्रेम के नाम पर जंजीरें रह जाती हैं.... बोझिल!!!!
मुह में तिक्त और कड़वा   स्वाद रह जाता है...................!!!

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