Monday, August 13, 2012


आधे -अधूरे संकेतों के सहारे
एक पुल की लम्बाई को अपने भीतर
कब से रोप रहीं थीं तुम......?
फिर भी आवाज़ क्यूँ नहीं दीं....?
और मैं पिघलती हुई भी.....
तुम्हारी छाती में खड़खड़ाती  साँसों की आवाज़ सुन रही थी...|
और तुम मेरे देखने को अनदेखा कर रहीं थीं......
............... क्यूँ?
"मेरे भीतर इधर से उधर टकराता अनवरत हाहाकार.....!"

एक सरहद में तुमने दाखिल कर मुझे
बाहर धकेल दिया....
बिना बताये... बिना समझाए... बिना सहलाये.....!
ऐसे में तुम मुझे बहुत निर्दयी लगीं थीं.....
और तुम्हारे ना बोलने से उस घर में
मेरे जाने तक बचे हुए समय के टुकड़े को
ज्यादा ही पीडक  बनाया....|
आह!........ अब मैं नहीं देख सकती कुछ भी.......!

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