कभी-कभी
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कभी-कभी लगता है मेरी इस आवाज़ को सोख रहा मेरा चेहरा,
मैं एकदम से देख लूं -इसी क्षण.......!
फिर एकाएक सारे रहस्यों की पोटली भी खोल दूं ....
और अपने ऊपर नीचे, आगे-पीछे, तानी गयी अपनी
अगाध मंशा के दाने भी बिखेर दूं...!
फिर कभी-कभी लगता है......
सब मेरी समझ के बाहर हो गया है...
और इसे सोख लेने के लिए
मुझे जन्म के साथ मिली मेरी ही पुरानी खाल पर
बिछे सारे रोमकूप बेकार हो जाते हैं...!
..... और...
और मैं फिर से रुआंसी हो जाती हूँ.............!!
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