Wednesday, August 8, 2012


बहुत सोच समझ कर ठोंक -बजाकर मैडम जी ने एक स्त्रियों की संस्था बनायी थी.., सोचा अब उन्हें ही देखेंगी, उनके सुख-दुःख, गति प्रगति से वास्ता रखेंगी.. आदि आदि.....
पर ई का हो गया मैडम जी को.....वे तो मर्दों को घेरे से बाहर रखने गयीं थीं,अब उन्ही की  बातों को ले बैठीं.. खूब व्याख्या-स्यख्या भी करने लगीं हैं....भूल गयीं ये भी कि टेढा बांका बोलकर भी बतवा वहीँ तक सीमित है.... उन्ही से लगकर अपने को संदर्भित किया जा रहा है....धत्त तेरे की....! जय हो....!!
सुख दुःख का बावेला उन्ही की टोकरी में भरा है का?

चलो यहाँ तक तो ठीक है कि संस्था में'पुरुष' ओढो..'पुरुष' बिछाओ होता है....पर अब ये क्या कि अपनी ही सरोकार की गेंद बाहर की दीवार से टकरा टकरा कर वापिस लौट जाती है...अपनी परिधि ढूंढती हुई....

".... केंद्र कुछ भी हो परिधि तो अपनी ही बनायी जाती है न.....!!"
........सोच लो मैडम जी......!

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