Wednesday, August 29, 2012


मन में गड्ड-मड्ड है.....
याचना का दंश..... अपनी लाचारी .... समय का फेरबदल....!
चाहा था कभी कि, अपनी इच्छा के ताप से
दलदल के इस महाकुंड की चौड़ाई को पार करूँ....|
इस महायज्ञ में मेरी इक छोटी सी समिधा भी याचना से नहीं,
संकल्प और सदिच्छा से सिंकी हुई हो....
'मुझे उत्सर्ग का बल दो.....'
और हाथ में कुछ ना दो....!

तुम्हारे ना होने की पीड़ा भी मैं ऐसे ही सन्दर्भ से जानूंगी....!
"निस्सहायता की पीड़ा... फिर समाधान की चमक..."
फिर सुबह के इंतज़ार का आवेश.....!
हर मनोवेग उस्तरे की  तरह नींद की चमड़ी को चीरता हुआ सा......
फिर भी मन में शिथिलता नहीं,
उठने के साथ ही ढून्ढ रही खुद को......
जहाँ- तहां ...........भीतर -बाहर....
मन फिर से घायल हो गया......!!

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