Thursday, July 5, 2012


(अब लौटने का कोई रास्ता ना रहा..
........जीवन... /भूलभुलैया../ चक्रव्यूह..........!)

ना कनीज़ रास्ता दिखा रही थी कोई
ना कोई ख्वाजासरा बिछा रहा था कालीन
ना दरवाज़े खुल रहे थे अपने आप
ना मुस्कुराते बंदे खड़े थे सर झुकाए....

काठ के घोड़े पर चढ के उड़ तो रहा था वह
बादलों पर...
पर.. नीचे उतरने की कला भूल गया .
और 'खुल जा सिम सिम 'का मंत्र भी भूल गया वह
......अचानक!!!!!!

"चक्रव्यूह की बात सुनते सुनते
तुम बीच में क्यूँ सो गयीं थीं सुभद्रा?"

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