वह लौटाने आया था राशन, उस दंगे के बाद
जो दिए गए थे बस्ती के कुछ घरों में,जिनके
या तो घर जले थे, या कोई अपना मरा था...
उसने कलेक्टर से यही कहा कि
-'उन फसादों में सबके बच्चे मरे, मेरे क्यूँ नहीं...
क्यूँ जिंदा रह गए सब.. के सब ?'
ये बात कह्ते हुए शब्द लड़खड़ा गए उसके..
ज़ुबान धोखा दे रहीथी ,
उस सिसकी को उसने भरसक
अपने होठो के कोटर में भीचनी चाही
.. पर फूट पड़ा..
हाथ सर से बंधे रहे और गाल गीले होते गए...
सुबकियां गले में ठेली जा रहीं थीं
धौंकनी सी छाती और हिलता शरीर.
शर्म छिपा सकने का भी होश नहीं था.
"'सात लोगों के परिवार में गुज़ारा कैसे होगा?
मुझे खैरात नहीं, कोई काम दे दो साहेब."
लडखडाती आवाज़ में इतना ही बस निकला..
कलेक्टर सोच में पड़ गया
सामने फोड़े से फूटते इस अजीब आदमी को देखकर.
"इतना लहीम-शहीम, इतना खुद्दार,
और ऐसे फफक फफक कर......
....... आखिर क्यूँ...".....?
"गुस्ताखी माफ हो साहेब"....
यही कहते हुए वह उठा, उबाल ठंडाने पर...
और निकल गया कमरे के बाहर, राशन का बण्डल वहीँ छोड़.
'पता नहीं आज आग कैसे जलेगी ,
बुरादा भी खत्म हो गया अंगीठी का..!'
(ये कोई काल्पनिक कविता नहीं, सत्य घटना का एक अंश है.. बस ज्यों का त्यों रखा गया सामने आपके)
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